प्रश्न 1: प्रतिकमण किसे कहते हैं ?
उत्तर 1: हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण करके अपनी स्वभाव दशा में से निकलकर विभाव दशा में चले गए थे तो पुनः स्वभाव रूप सीमाओं में प्रत्यागमन करना प्रतिकमण है। जो पापकर्म मन, वचन, और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाएं जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृति हेतु कृत पापों की आलोचना करना, निंदा करना प्रतिकमण कहलाता है।
प्रश्न 2: प्रतिकमण का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर 2: प्रतिकमण का शाब्दिक अर्थ है - पापों से पीछे हटना।
प्रश्न 3: प्रतिकमण को आवश्यक सूत्र क्यों कहा गया है ?
उत्तर 3: जिस प्रकार शरीर निर्वाह हेतु आहारदि क्रिया प्रतिदिन करना आवश्यक है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मा को सबल बनाने के लिए प्रतिकमण को आवश्यक सूत्र कहा गया है।
प्रश्न 4: प्रतिकमण में आवश्यक सूत्र के कितने अध्याय हैं ?
उत्तर 4: प्रतिकमण में आवश्यक सूत्र के छह अध्याय हैं- 1) सामयिक, 2) चतुर्विशतिस्तव, 3) वंदना, 4) प्रतिकमण, 5) कायोत्सर्ग, 6) प्रत्याखान।
प्रश्न 5: आवश्यक सूत्र के फल का वर्णन किस शास्त्र में आया है ?
उत्तर 5: उत्तराध्ययन सूत्र के 29 वें अध्ययन में।
प्रश्न 6: पांचवें आवश्यक ' कायोत्सर्ग' का क्या फल है ?
उत्तर 6: कायोत्सर्ग नामक पाँचवां आवश्यक करने से अतीत और वर्तमान के पापों का प्रायश्चित कर आत्मा विशुद्ध होती है तथा ब्राह्माभ्यन्तर सुख की प्राप्ति होती है।
प्रश्न 7: प्रतिकमण किस किस का किया जाता है ?
उत्तर 7: मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, अव्रत और अशुभयोग का प्रतिकमण किया जाता है।
प्रश्न 8: मिथ्यात्व का प्रतिकमण किस पाठ से होता है ?
उत्तर 8: दर्शनसम्यक्त्व के पाठ से, अठारह पाप स्थान के पाठ से ।
प्रश्न 9: अशुभयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर 9: मन-वचन-काया से बुरे विचार करना, कटुवचन बोलना एवं पाप कार्य करना अशुभयोग कहलाता है।
प्रश्न 10: काल की दृष्टि से प्रतिकमण के कितने भेद हैं ?
उत्तर 10: आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने काल की दृष्टि से प्रतिकमण के तीन भेद बताएँ हैं - 1) भूतकाल में लगे दोषों की आलोचना करना 2) वर्तमान में लगने वाले दोषों को सामायिक एवं संवर द्वारा रोकना 3) भविष्य में लगने वाले दोषों को प्रत्याख्यान द्वारा रोकना ।
प्रश्न 11: प्रतिकमण के 'इच्छामि णं भंते' के पाठ से क्या प्रतिज्ञा की जाती है ?
उत्तर 11: प्रतिकमण करने की और ज्ञान, दर्शन, चारित्र में लगे अतिचारों का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा की जाती है।
प्रश्न 12: अतिचार और अनाचार में क्या अंतर है ?
उत्तर 12: व्रत का एकांश भंग अतिचार कहलाता है।व्रत का सर्वथा भंग अनाचार कहलाता है। प्रत्याख्यान का स्मरण ना रहने पर या शंका से जो दोष लगता है, वह अतिचार है एवं व्रत को पूर्णतया तोड़ देना अनाचार है।
प्रश्न 13: 'इच्छामि ठामि' के पाठ में ऐसे कौन-कौन से शब्द हैं, जो श्रावक के 12 व्रतों का प्रतिनिधित्व करते हैं ?
उत्तर 13: पंचण्हमणुव्वयाणं - पाँच अणुव्रत, तिण्हं गुणव्वयाणं - तीन गुणव्रत, चउण्हं सिक्खावयाणं - चार शिक्षाव्रत ।
प्रश्न 14: अठारह पापों में सबसे प्रबल पाप कौन सा है ?
उत्तर 14: मिथ्यादर्शन शल्य ।
प्रश्न 15: परिग्रह को पाप का मूल क्यों कहा गया है ?
उत्तर 15: इच्छा आकाश के सामान अनंत है। ज्यों- ज्यों लाभ होता है, लोभ बढ़ता जाता है।सभी जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर कोई बंधन नहीं है। परिग्रह अशांति का कारण है।इससे कलह, बेईमानी, चोरी, हिंसा आदि का प्रादुर्भाव होता है।इन सब कारणों से परिग्रह को पाप का मूल कहा गया है।
प्रश्न 17: अरिहंत, सिद्ध, साधू, और केवली प्रारूपित दयामय धर्म- इन चारों को मंगल क्यों कहा गया है ?
उत्तर 17: इन चारों के स्मरण से, श्रवण से, शरण से समस्त पापों का नाश होता है, विघ्न टल जाते हैं।
प्रश्न 18: पच्च्क्खान क्यों करते हैं ?
उत्तर 18: व्रत में लगे दोषों की आलोचना करने के बाद पुनः दोषोत्पत्ति ना हो इसलिए मन पर अंकुश रखने के लिए पच्च्क्खाण करते हैं।
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