ता. 13 सितम्बर 2013, पालीताना
जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ के उपाध्याय प्रवर पूज्य गुरूदेव मरूध्ार मणि श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. ने श्री जिन हरि विहार ध्ार्मशाला में आज प्रवचन फरमाते हुए कहा- मैं कौन हूँ, इस प्रश्न से ही धर्म का प्रारंभ होता है। जब तक व्यक्ति अपने आपको नहीं जानता, उसका शेष जानना व्यर्थ है। उन्होंने कहा- आचारांग सूत्र का प्रारंभ इसी प्रश्न से होता है। परमात्मा महावीर ने जो देशना दी थी, उसे सुधर्मा स्वामी ने आगमों के माध्यम से जंबू स्वामी से कहा। परमात्मा फरमाते हैं कि इस दुनिया में अनंत जीव ऐसे हैं जो यह नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? किस दिशा से आया हूँ? और कहाँ जाना है?
उन्होंने कहा- आज आदमी सारी दुनिया को जानता है, अपने पराये को जानता है, रिश्तेदारों और मित्रों को पहचानता है परन्तु यह उसकी सबसे बडी गरीबी है कि वह जानने वाले को नहीं जानता। यह शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, क्योंकि शरीर आज है, कल नहीं था, कल नहीं रहेगा! जबकि मैं कल भी था, आज भी हूँ और कल भी रहूँगा! तो वह कौन है जो तीनों काल में है, जिसे कोई मिटा नहीं सकता, चुरा नहीं सकता।
उन्होंने कहा- संसार के साधनों को पाने और खोने में हमने अपनी कई जिन्दगियाँ गँवा दी। संसार से कभी भी किसी को भी न कभी सुख हुआ है, न होगा। संसार से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। कितना भी अधिक हो, कम ही लगता है।
उन्होंने कहा- परमात्मा से संसार की प्रार्थना करने वाला व्यक्ति धर्म से नासमझ है। जिसने धर्म को समझा है, वह व्यक्ति सुख पाने या दुख मिटाने की प्रार्थना नहीं करता। वह सुख दुख में समभाव में रहने का संकल्प चाहता है। वह यही प्रार्थना करेगा कि सुख कितना भी हो, प्रभो! मुझे वह शक्ति देना, जिससे मेरे मन में उस सुख के प्रति आसक्ति का भाव नहीं जगे! अहंकार का भाव मन में नहीं आने पाये। दुख को दूर करने की बजाय वह यह प्रार्थना करेगा कि प्रभो! दुख में भी आपका स्मरण सदा बना रहे और दुख में भी सुख का अनुभव करूँ, ऐसी शक्ति वह चाहता है।
उन्होंने कहा- मैं कहाँ से आया हूँ, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न है- मुझे कहाँ जाना है? आगे की चिंता करो और अभी से चिंता करो। अपने भविष्य का निर्माण हमें ही करना है। हमारे अपने ही हाथों में है हमारा भविष्य!
यह हमारा स्थायी ठिकाना नहीं है। यहाँ से तो हमें चलना ही पडेगा। पर कहाँ जाना है, इसका निर्णय हमारा आचरण करेगा। इसलिये अपने आचरण पर लगातार निगाह रखो।
चातुर्मास प्रेरिका पूजनीया बहिन म. डाँ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा. ने कहा- तीर्थ यात्रा का अर्थ होता है, हमें अपने जीवन में से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, ईष्र्या आदि दुर्गुणों को देश निकाला देना। उसी व्यक्ति की तीर्थ यात्रा सफल मानी जाती है, जो यहाँ कुछ छोड कर जाता है और यहाँ से कुछ लेकर जाता है।
हमें यहाँ से लेकर जाना है, परमात्मा की भक्ति, परोपकार का भाव, सरलता और सहजता! छोड कर जाना है दुर्गुणों का भंडार!
आज जसोल से 180 श्रावक श्राविकाओं का संघ पूज्य गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ। उनका चातुर्मास आयोजक श्री बाबुलालजी लूणिया एवं श्री रायचंदजी दायमा परिवार की ओर से भावभीना अभिनंदन किया गया। यह ज्ञातव्य है कि जसोल में अतिप्राचीन श्री शांतिनाथ जिन मंदिर की अंजनशलाका प्रतिष्ठा 19 जनवरी 2011 को पूज्यश्री की निश्रा में संपन्न हुई थी।
प्रेषक
दिलीप दायमा
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