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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

गलती निकालने की प्रवृत्ति रूग्ण मानसिकता का प्रतिबिम्ब है। और इसी से आदमी जीवन को दु:खमय बनाता है। अपने दोषों का अवलोकन करके सुध्ाारने का प्रयास करने में ही जीवन की सार्थकता है। और इसी से मन निर्विकार परमात्म स्वरूप का प्राप्त हो सकता है।

नवप्रभात
0 उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.
एक कलाकार ने प्रतिमा का निर्माण किया था। प्रतिमा बहुत ही सुन्दर बनी थी। एक व्यक्ति बडे ध्यान से उस प्रतिमा का निरीक्षण कर रहा था।
कलाकार ने पूछा- कैसी बनी है प्रतिमा! कोई कमी तो नहीं रह गई है। आप जिस ढंग से प्रतिमा का अवलोकन कर रहे हैं, उससे ज्ञात होता है कि आप एक अनुभवी पारखी आदमी है। इस प्रतिमा के संदर्भ में कोई सुझाव हो तो बतायें।
उस व्यक्ति ने कहा- प्रतिमा तो बहुत सुन्दर बनी है। पर इसका दायां गाल थोडा ज्यादा उपसा हुआ है। थोडा कम करेंगे तो प्रतिमा सर्वथा निर्दोष हो जायेगी।

सुनकर कलाकार मुस्कुराया। उसने उसी समय छैनी और हथोडा हाथ में लिया। और दांयें गाल को ठीक करने का दिखावा किया। सफेद चूरा थोडा नीचे गिरा।
कलाकार ने पूछा- अब कैसी लग रही है!
वह व्यक्ति बोला- अब एकदम बराबर दिख रही है।
उसके शब्दों में अपने द्वारा प्रतिमा ठीक करवाने का अहंकार बोल रहा था।
कोई व्यक्ति जब अपनी बात कर अपनी गलती को सुध्ाारता है, तो कहने वाले का अहंकार सिर चढ कर बोलता है। सच तो यह है कि दूसरों की गलती ढूंढने में आदमी को रस है। वह हर वस्तु में गलती निकाल सकता है।
कलाकार ने कहा- महानुभाव! मैं तुम्हें एक बात पूछना चाहता हूँ।
प्रतिमा तो वही है। जो पहले थी। तुमने उसे सुध्ाारने का कहा। मैंने सुध्ाारने का नाटक किया। हाथ में हथोडा भले लिया। पर प्रतिमा को छुआ भी नहीं। बंद मुट्ठी में मैं चूरा लेकर चढा था। उसे गिराया। जिसे देख कर तुम समझे कि मैं तुम्हारे कहे अनुसार ठीक कर रहा हूँ। तुम संतुष्ट हुए।
मेरे मित्र! तुम बताओ कि वही प्रतिमा अब तुम्हें ठीक कैसे लग रही है!
यह उदाहरण हमारे चित्त का प्रतीक है। गलती हो, न हो, पर गलती निकालने की प्रवृत्ति रूग्ण मानसिकता का प्रतिबिम्ब है। और इसी से आदमी जीवन को दु:खमय बनाता है।
अपने दोषों का अवलोकन करके सुध्ाारने का प्रयास करने में ही जीवन की सार्थकता है। और इसी से मन निर्विकार परमात्म स्वरूप का प्राप्त हो सकता है।

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