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GURU MANIPRABH |
उपाध्याय मणिप्रभसागर
पालीताणा जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ के उपाध्याय प्रवर पूज्य गुरूदेव मरूधर मणि श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. की पावन निश्रा में आज श्री जिन हरि विहार धर्मशाला में श्री नवपदजी की ओली के आखिरी दिन प्रवचन फरमाते हुए कहा- जीवन में हर व्यक्ति के साथ दो घटनाऐं होती है।
हर
व्यक्ति कभी न कभी किसी न किसी का सहयोगी बनता है। और दूसरी वह स्वयं कभी न कभी किसी और से सहयोग प्राप्त करता है।
कभी वह किसी का उपकारी होता है, कभी वह किसी से उपकृत होता है। इन दोनों प्रकार की घटनाओं में से हम केवल उन घटनाओं को याद रखते हैं, जिनमें हमने किसी का उपकार किया है। मुझ पर उपकार जिसने किया, उसे हम भूल जाता है। यह व्यक्ति की सबसे बडी कृतघ्नता है।
उन्होंने कहा- यदि जीवन में शांति और आनंद चाहिये तो हमें उन घटनाओं को भुला देना चाहिये जिनमें हमने किसी पर उपकार किया है। और उन घटनाओं को हमें याद रखना चाहिये जिनमें मुझ पर किसी ने उपकार किया है।
आज ओलीजी के समाप्ति के अवसर पर उन्होंने श्रीपाल के जीवन का रहस्य बताते हुए कहा- धर्म उन्हीं के हृदय में निवास करता है, जो अपने उपकारी के प्रति सदा सदा बहुमान का भाव रखते हैं।
नवम तप पद की व्याख्या करते हुए कहा- तपस्या एक ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिससे कर्म दल पल भर में नष्ट हो जाता है। परमात्मा महावीर ने तप की महिमा बताते हुए कहा है- तप से कर्मों की निर्जरा होती है और निर्जरा से मोक्ष मिलता है।
उन्होंने कहा- तपस्या की बातें करना आसान है, पर तप करना बहुत कठिन काम है। तप करने का अर्थ है- पांचों ही इन्दि्रयों पर नियंत्रण स्थापित करना। सिर्फ भोजन के त्यागी को तपस्वी नहीं का है। बल्कि भोजन का त्याग करने के साथ साथ जो व्यक्ति अपन मन, आंख, कान, जीभ आदि समस्त इन्दि्रयों को अपने वश में करता है, वही तपस्वी है।
प्रेषक
दिलीप दायमा
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