जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ के उपाध्याय प्रवर पूज्य गुरूदेव मरूध्ार मणि श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. ने श्री जिन हरि विहार ध्ार्मशाला में आज प्रवचन फरमाते हुए कहा- हम क्या जानते हैं? यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है! जितना महत्वपूर्ण यह है कि हम क्या समझते हैं? क्योंकि जानना बुद्धि का परिणाम है... समझना आचार का परिणाम!
जानकारी तो हमारी बहुत है! और नई नई बातें जानने के लिये हम प्रतिक्षण लालायित रहते हैं।
पर समझने के लिये हमारा मानस और हृदय बहुत कम तैयार होता है। समझ के अभाव में हमारी जानकारी व्यर्थ है।
जानकारी के क्षेत्र में वर्तमान का युग बहुत आगे बढ गया है। समझने के क्षेत्र में उतना ही पीछे रह गया है।
खाने से पेट भरता है, इस जानकारी के साथ यह समझ जरूरी है कि उस खाने से पेट में विकृति तो पैदा नहीं होगी!
बिना जानकारी के जीवन का निर्माण नहीं होता!
तो बिना समझ के ‘अच्छे जीवन’ का निर्माण नहीं हो सकता!
दोनों एक दूसरे के पूरक है।
आज जानकारी का जमाना है। कम्प्युटर के जरिये पल भर में पूरे विश्व का ज्ञान हम प्राप्त कर रहे हैं। पर जीवन को समझ नहीं मिल रही है। जीवन का तनाव तो बढता ही जा रहा है।
जानकारी ने संबंधों को विस्तार तो बहुत दिया है। पर समझ के अभाव में संबंधों का विकास नहीं हो पाया है।
जानकारी विस्तार देती है! समझ आत्मीयता देती है।
जानकारी की भाषा तर्क की होती है... न्याय की होती है। जबकि समझदारी की भाषा समझौते की होती है।
जानकारी वर्तमान देखती है! वह उस पर बहस करती है! वह परिणाम की परवाह नहीं करती!
समझ भविष्य देखती है! परिणाम देखना... और परिणाम पाना पसन्द करती है!
वह परिणाम के लिये अपने वर्तमान को बदलते भी देर नहीं करती! वह अकड नहीं रखती! वह अकड कर बैठ नहीं जाती! वह परिवर्तन में भरोसा करती है... यदि परिवर्तन परिणामलक्षी हो!
लोहे को सिर पर उठाकर चांदी की खदान के पास से गुजरने वाला व्यक्ति यदि यह निर्णय लेता हो कि मैंने जो सिर पर उठा लिया सो उठा लिया... मैं बार बार नहीं बदलूंगा! इतनी देर से मैं इसे उठा कर लाया हूँ! वह क्या व्यर्थ था? तो निश्चित ही समझना चाहिये कि वह समझ से कोसों दूर है।
समझ उसे इशारा करेगी कि छोड इसे! और ग्रहण करले उसे जो ज्यादा मूल्यवान् है।
मुश्किल तो यह है कि हम जानते बहुत हैं! समझते हैं, ऐसा दर्शाते भी बहुत है! पर वह समझ समझ कहाँ है, जो हमारे आचरण में नहीं उतरती! जो समझ कर भी नहीं समझता, उससे बडा नासमझ और कौन होगा ?
आचरण के अभाव में जानकारी कचरा है! समझ वह है, जो जीवन में उतरती है! जो जीवन की दशा और दिशा बदलती है!
मुनि मेहुलप्रभसागरजी म. ने उपधान की कि्रया कराते हुये कहा कि जीवन को आराधनामय बनाने के लिये प्रभु शासन के प्रति वफादार होना होगा।
उपधान के आयाोजक श्री बाबुलाल लुणिया ने कहा- तीर्थ यात्रा का अर्थ होता है, हमें अपने जीवन में से क्रोध्ा, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, ईष्र्या आदि दुर्गुणों को देश निकाला देना। उसी व्यक्ति की तीर्थ यात्रा सफल मानी जाती है, जो यहाँ कुछ छोड कर जाता है और यहाँ से कुछ लेकर जाता है।
हमें यहाँ से लेकर जाना है, परमात्मा की भक्ति, परोपकार का भाव, सरलता और सहजता! छोड कर जाना है दुर्गुणों का भंडार!
प्रेषक-
दिलीप दायमा
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