अध्यात्म भविष्य की रोशनी
- उपाध्याय मणिप्रभसागर
पालीताणा, आज श्री जिन हरि विहार स्थित श्री आदिनाथ जैन मयूर मंदिर की वार्षिक ध्वजा का भव्य आयोजन संपन्न हुआ। ध्वजा का लाभ श्रीमती पुष्पाजी जैन ने लिया। इस अवसर पर सतरह भेदी पूजा व अठारह अभिषेक का आयोजन किया गया।जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ
के उपाध्याय प्रवर
पूज्य गुरूदेव मरूध्ार
मणि श्री मणिप्रभसागरजी
म.सा. आज
श्री जिन हरि
विहार ध्ार्मशाला में
प्रवचन फरमाते हुए कहा-
अधिकतर हमारा समय वागोलने
में व्यतीत होता
है। वागोलने में
आनंद होता नहीं
है। पर हम
अनुभव कर लेते
हैं। क्योंकि वागोलने
में करना कुछ
नहीं पडता।
उसके लिये चबाने
की यह प्रकि्रया
जरूरी है। यह
उसकी दैनंदिनी है।
पर हम भी
शाम या दोपहर
को जब भी
थोडा समय मिला,
अतीत को चबाने
में लग जाते
हैं।
अतीत को चबाने
का अर्थ होता
है- पीछे मुड
मुड कर देखना।
हमेशा हमें वह
रास्ता अच्छा लगता है,
जिस पर चलकर
आये हैं। आगे
का रास्ता सदैव
भयावह प्रतीत होता
है। क्योंकि उसे
अभी देखा नहीं
है। इसलिये पीछे
मुड मुड कर
देखना बहुत अच्छा
लगता है। चलते
आगे हैं.... पर
देखते पीछे हैं!
अतीत को निहारना
बुझे हुए चेहरे
की अभिव्यक्ति है।
जगमगाता पुरूषार्थ तो केवल
आगे देखता है।
उसे केवल अपने
लक्ष्य की चिंता
है।
उसके मन में
केवल अपनी मंजिल
की तस्वीर है।
और जो भविष्य
नहीं देखता, वह
वर्तमान क्या देखेगा!
क्योंकि भविष्य का हर
रास्ता वर्तमान होकर ही
जाता है। बिना
वर्तमान के द्वार
को पार किये
कोई भी व्यक्ति
भविष्य-मंजिल को नहीं
पा सकता।
अतीत को ही
वागोलते रहने के
लिये न भविष्य
की चिंता करनी
होती है... न
वर्तमान में जीना!
ऐसा मन वर्तमान
में जीता हुआ
भी अतीत में
जीता है। उसका
केवल तन वर्तमान
में होता है..
मन तो अतीत
में ही डूबा
रहता है। वह
वर्तमान की तुलना
अतीत से नहीं
करता! वह अतीत
की तुलना वर्तमान
से करने लगता
है। इसका अर्थ
हुआ- अतीत को
ही अपना आदर्श
मान कर उन्हीं
नजरों से वर्तमान
को निहारता है।
वह वर्तमान को
नहीं जीता, अपितु
अतीत को वर्तमान
पर प्रक्षिप्त करता
हुआ जीता है।
अध्यात्म भविष्य की रोशनी
है। क्योंकि उसमें
अपनी आत्मा के
भविष्य का चिंतन
है। वही तो
अपने वर्तमान को
सुधारेगा, जिसे अपना
भविष्य सुधारना होगा।
प्रेषक
दिलीप दायमा
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