39. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
जटाशंकर परीक्षा में अनुत्तीर्ण
हो गया था। अपना कार्ड लेकर मुँह लटका कर रोता हुआ जब घर पहुँचा तो पिताजी ने रोने
का कारण पूछा- हाथ में रखा प्रगति पत्र आगे करते हुए कहा- मैं फेल हो गया हूँ। इसलिये
रो रहा हूँ।
पिताजी को भी क्रोध तो बहुत
आया। साल भर गँवा दिया। यदि मेहनत करता तो निश्चित ही पास हो जाता। इधर उधर घूमता
रहा। पढाई की नहीं, तो फेल तो होओगे।
पर सोचा- मेरा लडका वैसे ही उदास
है। रो रहा है। यदि मैंने भी क्रोध में इसे डाँटना प्रारंभ कर दिया तो पता नहीं यह
क्या कर बैठेगा? कहीं उल्टी सीधी हरकत कर दी तो मैं अपने बेटे से हाथ खो बैठूंगा।
इसलिये सांत्वना देते हुए पिताजी
ने कहा- बेटा जटाशंकर! रो मत! तुम्हारे भाग्य में फेल होना ही लिखा था। इसलिये धीरज
धर।
सुनते ही जटाशंकर ने अपना रोना
बंद कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- पिताजी! मैं इस बात पर बहुत प्रसन्न हूँ कि मेरे
भाग्य में फेल होना ही लिखा था। अच्छा हुआ जो मैंने मेहनत पूर्वक पढाई नहीं की। यदि
करता तो भी फेल हो जाता और इस प्रकार मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाती, मिट्टी में मिल
जाती।
मेहनत न करने का दोष भाग्य पर
नहीं ढाला जा सकता। भाग्य तो पुरूषार्थ का ही परिणाम है। मेहनत से जी चुराने वाला सदा
अनुत्तीर्ण होता है। और दोष अपने आलस्य को नहीं, बल्कि भाग्य को देकर राजी होता है।
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