अपने अतीत का जो व्यक्ति अनुभव
कर लेता है, वह वर्तमान में जीना सीख लेता है। वर्तमान कुछ अलग नहीं है। वर्तमान की
हर प्रक्रिया मेरे अतीत का हिस्सा बन चुकी है। और एक बार नहीं, बार बार मैं उसे जी
चुका हूँ।
मुश्किल यह है कि मुझे उसका स्मरण
नहीं है। मैं उस अतीत की यथार्थ कल्पना तो कर सकता हूँ। पर उसे पूर्ण रूप से स्मरण
नहीं कर पाता। इस कारण मैं अपने आपको बहुत छोटा बनाता हूँ। मैंने अपने जीवन को कुऐं
की भांति संकुचित कर लिया है। वही अपना प्रतीत होता है। उस कुऐं से बाहर के हिस्से
को मैं अपना नहीं मानता। क्योंकि यह मुझे ख्याल ही नहीं है कि वह बाहर का हिस्सा भी
कभी मेरा रह चुका है।
अतीत में छलांग लगाना अध्यात्म
की पहली शुरूआत है। अतीत को जाने बिना मैं वर्तमान को समग्रता से समझ नहीं पाता। और
वर्तमान को जाने बिना कोई भविष्य नहीं है। सच तो यह है कि भविष्य कुछ अलग है भी नहीं,
वर्तमान ही मेरा भविष्य है।
अपने अतीत को जानने का अर्थ है-
अतीत में मैं कहाँ था, मैं क्या था, इसे जान लेना। वह अतीत किसी और का नहीं है, मेरा
अपना है। और अतीत होने से वह पराया नहीं हो जाता। उसका अपनत्व मिटा नहीं है। मात्र
अतीत हुआ है।
यदि अतीत होने से उसे अपना मानना
छोड देंगे तो कुछ जी ही नहीं पायेंगे। क्योंकि अतीत होने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चल
रही है। फिर तो अपना कुछ रहेगा ही नहीं। इस जन्म के अतीत को ही अपना नहीं मानना है,
अपितु पूर्वजन्मों के संपूर्ण अतीत को अपना अतीत मानना है।
यह भाव प्रकृति के हर अंश से
जोड देगा, क्योंकि इस पृथ्वी पर कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, कोई ऐसा आकार नहीं है, कोई
ऐसी स्थिति नहीं है, जो कभी न कभी अतीत न रहा हो। मेरी चेतना इस धरती के हर अंश से
गुजर चुकी है। तो फिर पूरी पृथ्वी अपनी है। और अपनत्व को थोडा और विस्तार देकर एकाकार
हो जाना है।
हर पदार्थ मेरा है और हर पदार्थ
मैं हूँ।
पेड पौधे, जीव जन्तु सब में मैं
हूँ।
यह अनुभव हमें वर्तमान में जीना
सिखाता है। जब सब में मैं ही हूँ, तो उसके प्रति मेरा व्यवहार वैसा ही होना चाहिये,
जैसा मैं अपने साथ करता हूँ।
फिर कोई पराया नहीं रहता, फिर
कोई शत्रु नहीं रहता।
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