हमें मन के अनुसार जीवन का निर्माण
नहीं करना है। बल्कि जीवन के लक्ष्य के अनुसार अपने मन का निर्माण करना है।
यह तो तय है कि मन की दिशा के
अनुसार ही हमारा आचरण होता है। मन मुख्य है। मन यदि सम्यक् है तो जीवन सम्यक् है! मन
यदि विकृत है तो जीवन विकृत है।
मन के अधीन जो जीता है, वह हार
जाता है। जो मन को अपने अधीन बनाता है, वह जीत जाता है। मन को अपना मालिक मत बनने दो!
वह तो मालिक होने के लिये कमर कस कर तैयार है। वह छिद्र खोजता है। छोटा-सा भी छिद्र
मिला नहीं कि उसने प्रवेश किया नहीं! प्रवेश होने के बाद वह राजा भोज बन जाता है।
फिर हमें नचाता है! उलटे सीधे
सब काम करवाता है। क्योंकि उसे किसकी परवाह है। वह किसी के प्रति जवाबदेह भी नहीं है।
उसे परिणाम भोगने की चिंता भी नहीं है।
वह तो थप्पड मार कर अलग हो जाता
है। दूर खडा परिणाम को और परिणाम भोगते तन या चेतन को देखता रहता है। उसे किसी से लगाव
भी तो नहीं है। तन का क्या होगा, उसे चिंता नहीं है। चेतना का क्या होगा, उसे कोई परवाह
नहीं है। उसे तो केवल अपना मजा लेना है। और सच यह भी है कि हाथ उसके भी कुछ नहीं आता!
न पाता है, न खोता है, न रोता है, न सोता है! जैसा था, वैसा ही रहता है।
सुप्रसिद्ध योगीराज श्री आनंदघनजी
महाराज कुंथुनाथ परमात्मा की स्तुति करते हुए अपने हृदय को खोलते हैं! मन को समझाते
हैं! मन की सही व्याख्या करते हैं! और मन से ऊपर उठकर चेतना के साथ जीने का पुरूषार्थ
भी करते हैं, प्रेरणा भी देते हैं!
उन्होंने मन के लिये सांप का
उदाहरण दिया है-
सांप खाय ने मुखडुं थोथुं, एह
उखाणो न्याय!
सांप किसी को खाता है, तो उसके
मुँह में क्या आता है? मुख तो खाली का खाली रहता है। इसी प्रकार का मन है। उसे मिलता
कुछ नहीं है। पर दूसरों का बहुत कुछ छीन लेता है। वह रोता नहीं है, परन्तु रूलाने में
माहिर है।
जीना है पर मन के अनुसार नहीं!
मन को मनाना है, इन्द्रियों के अनुसार नहीं! अपने लक्ष्य के आधार पर! अपनी चेतना के
आधार पर!
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