एक लघु कथा पढी थी।
एक आदमी सुबह ही सुबह एक लोटे
में छास भर कर अपने घर की ओर आ रहा था। रास्ते में उसका दोस्त मिला। उसके पास एक बडे
पात्र में दूध था।
उसने कहा- मेरे पास दूध ज्यादा
है, थोडा तुम ले लो!
उसने कहा- मुझे भी दूध चाहिये।
लाओ, मेरे इस लोटे में डाल दो।
वह दूध उसके लोटे में डाल ही
रहा था कि उसकी निगाहें लोटे के भीतर पडी। देखा तो कहा- भैया! इसमें तो छास दिखाई दे
रही है। पहले लोटे को खाली करके धो डालो, बाद में दूध डालूंगा।
उसने कहा- नहीं! मुझे छास बहुत
प्रिय है। मैं इसका त्याग नहीं कर सकता। मुझे छास भी चाहिये और दूध भी चाहिये। तुम
इसी में डाल दो। लोटा आधा खाली है। इतना दूध डाल दो।
उसने कहा- यह मूर्खता की बात
है। यदि छास में दूध डाल दिया गया तो दूध भी बेकार हो जायेगा।
उसने कहा- जो होना हो, पर दूध
तो इसी में डालना पडेगा। मैं खाली नहीं करूँगा।
वह अपना दूध लेकर रवाना हो गया।
यह कहानी व्यावहारिक जगत में
घटी या नहीं, पता नहीं। परन्तु आध्यात्मिक जगत के लिये पूर्णत: सार्थक है।
पीना है दूध तो छास का त्याग
करना ही पडेगा! हमें दूध पसंद है। उसे पाना भी चाहते हैं। पाने के बाद पीना भी चाहते
हैं। परन्तु उसके अद्भुत स्वाद का हमें पूर्ण अनुभव नहीं है। सुना है बहुत उसके स्वाद
के बारे में! पर निज-अनुभव के अभाव में निर्णय नहीं हो पा रहा है।
छास तो सदैव मिली है। इस कारण
छास के स्वाद का पता है। अनादि काल से मिलने के कारण उससे दोस्ती भी हो गई है। छास
की खटास में भी मिठास के अनुभव की आदत पड गई है। इस कारण वही अच्छी लगती है।
यह छास है- संसार! और दूध है-
मुक्ति!
यह तय है कि दूध अच्छा लगना ही
पर्याप्त नहीं है। दूध की मिठास प्रिय लगने के साथ साथ छास की खटास हमें अप्रिय लगनी
चाहिये।
छोड़नी है संसार की छास! और पाना
है मुक्ति का दूध!
Comments
Post a Comment
आपके विचार हमें भी बताएं