नवप्रभात - उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.
हमारी जिन्दगी का समय केवल और
केवल प्रतीक्षा में
बीतता है। दिन
में हम रात
की प्रतीक्षा करते
हैं। और रात
होने पर दिन
की प्रतीक्षा में
रात गुजार देते
हैं।
न दिन को
अच्छी तरह देख
पाते हैं... न
रात को!
यह खेल मन
का है। वह
वहाँ रहना नहीं
चाहता, जहाँ होता
है। वह सदा
आगे पीछे, दांयें
बांयें, इधर उधर,
उफपर नीचे झांकता
रहता है। उसे
सीधी नजर में
कोई रस नहीं
होता।
घर में कोई
उत्सव होने वाला
हो, तो उस
उत्सव के काल्पनिक
सपने ही दिमाग
में तैरते रहते
हैं। और यह
तो तय है
कि यथार्थ उत्सव
से काल्पनिक उत्सव
बहुत सुहाना और
आकर्षक होता है।
क्योंकि काल्पनिक सपने पर
आपकी अपनी पकड
होती है। वह
उसे मनचाही दिशा
में बहा सकता
है... मोड सकता
है।
वह काल्पनिक दृश्य भी
खडे कर लेता
है, काल्पनिक संवाद
भी तैयार कर
लेता है। सामने
वाला क्या बोलेगा,
यह भी वही
तय करता है,
और स्वयं क्या
जवाब देगा, यह
भी वही तय
करता है। क्योंकि
वहाँ कोई उसे
रोकने वाला या
टोकने वाला नहीं
है।
यथार्थ में ऐसा
नहीं होता। यथार्थ
में सामने वाला
क्या बोलेगा, यह
सामने वाला तय
करता है। तुम
क्या बोलोगे, यही
तुम्हें तय करना
होता है। वह
भी तब जब
तुममें विवेक और धीरज
हो तथा परिणाम
पर नजर हो।
अन्यथा अिधकतर तो ऐसा
होता है कि
तुम क्या बोलोगे,
यह भी सामने
वाला ही तय
करता है। क्योंकि
तुम्हें तो जवाब
देना है और
जवाब हमेशा प्रश्न
के अनुसार दिया
जाता है। प्रश्न
की भाषा और
प्रश्न की टोन
तुम्हारे दिल दिमाग
पर इतनी हावी
हो जाती है
कि तुम स्वयं
अपनी भाषा, अपनी
टोन भूल जाते
हो।
मन ऐसा करके
मन को ही
प्रभावहीन बनाता है। मन
का यह कार्य
मन का ही
विरोधी है। तभी
तो मन दुखी
होता है। हो
सकता है, प्रतीक्षा
करने के क्षण
सुखमय हो, पर
परिणाम तो दुखदायी
ही होता है।
मन के इस
नुकसान करने वाले
खेल को समझ
कर मन की
दिशा को बदल
देना है।
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