आघरिया गोत्र का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
आघरिया गोत्र का
संबंध भाटी राजपूतों से है। सिंध देश में अग्ररोहा नाम का नगर था। उस नगर पर
गोपालसिंह भाटी राजपूत राज्य करता था।
वि. सं. 1214 चल
रहा था। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास हो चुका था। उनके पट्ट
पर मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि बिराजमान थे।
वे विहार करते
हुए अग्ररोहा नगर पधारे। उस समय उस राज्य पर यवन सेना का आक्रमण हुआ था। राजा
गोपालसिंह भाटी को उन्होंने कैद कर दिया था।
तब राजा के
प्रधान घुरसामल अग्रवाल ने बहुत सावधानी से मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि के पास पहुँचा।
उनसे निवेदन किया- भगवन्! कैसे भी करके राजा को छुडाना है।
गुरुदेव ने कहा-
यदि राजा हिंसा का त्याग करे... जैन धर्म स्वीकार करे... नवकार का जाप करे... तो
यह चमत्कार संभव है।
उसने कहा-
गुरुदेव! आपका आदेश शिरोधार्य होगा।
गुरुदेव के जाप
का ऐसा अद्भुत चमत्कार रहा कि राजा गोपालसिंह की बेडियॉं अपने आप टूट गई। यवन सेना
के सेनापति यह देख कर चमत्कृत हुआ। उसने दूसरी नई मजबूत बेडियॉं डाली।
पर दूसरे ही पल
वे बेडियॉं भी टूट गई।
ऐसा सात बार हुआ।
तब वह अचरज से भर कर पूछने लगा- राजन्! यह क्या चमत्कार है।
राजा गोसलसिंह
भाटी ने कहा- मैं नहीं जानता।
सेनापति शमशेरखां
ने विचार किया- यह सामान्य घटना नहीं है। अवश्य ही इसके पीछे किसी महापुरुष का हाथ
होना चाहिये।
उसने तत्काल राजा
गोसलसिंह को मुक्त कर दिया।
राजा मुक्त होकर
अपने घर गया। प्रधान घुरसामल ने कहा- राजन्! यह सब गुरुदेव मणिधारी जिनचन्द्रसूरि
की ही कृपा का परिणाम है।
राजा सपरिवार
गुरुदेव के पास पहुँचा। राजा ने गुरुदेव से धर्म का श्रवण किया। श्रद्धा से भर कर
उसने जिनधर्म स्वीकार कर लिया।
अग्ररोहा शहर की
यह घटना होने से उन्हें गोत्र दिया- आग्रहिया! कालांतर में यही गोत्र आग्रहिया
आघरिया/आगरिया नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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