बोथरा गोत्र का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
इस गोत्र का
इतिहास देवलवाडा से प्रारंभ होता है। देवलवाडा पर चौहान वंश के भीमसिंह का राज्य
था। इतिहास के अनुसार वह 144 गांवों का अधिपति था। उसकी एकाकी पुत्री जालोर के
राजा लाखणसिंह को ब्याही गई थी। वह ससुराल में पारस्परिक द्वन्द्व के कारण अपने
पुत्र सागर को लेकर पीहर आ गई थी। भीमसिंह ने अपना राज्य दोहित्र सागर को सौंप
दिया।
सागर के चार
पुत्र थे- बोहित्थ, माधोदेव, धनदेव
और हरीजी! इतिहास की अन्य पुस्तक में तीन पुत्रें का लिखा है।
सागर राजा की
मृत्यु के बाद बडे पुत्र बोहित्थ ने देवलवाडा राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। वह
धर्मपरायण राजा था।
विहार करते हुए
प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि वि. सं. 1197 में देवलवाडा पधारे। गुरुदेव की
दिव्य साधना का वर्णन जब राजा बोहित्थ के कानों से टकराया तो वह उनके दर्शन करने
के लिये उत्सुक हो उठा। वह दूसरे ही दिन सपरिवार गुरुदेव के दर्शनार्थ पहुँचा।
पहले प्रवचन से ही वह अत्यन्त प्रभावित हो उठा। वह प्रतिदिन प्रवचन श्रवण करने आने
लगा। मन में पैदा हो रही जिज्ञासाओं का समाधान करने लगा।
दादा गुरुदेव
श्री जिनदत्तसूरि ने जिन धर्म का रहस्य समझाते हुए आत्म-कल्याण की प्रेरणा दी।
फलस्वरूप उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। गुरूदेव बोहित्थरा गोत्र की स्थापना की।
गुरुदेव ने कहा- तुम्हारा आयुष्य अल्प है,
अतः आत्म-साधना में
प्रवृत्त हो जाओ।
बोहित्थ का
परिवार विशाल था। उसने चार विवाह किये थे,
जिनसे 35 संतानों का
जन्म हुआ था। बोहित्थ के सबसे बडे श्रीकर्ण को छोड कर शेष सभी ने जिन धर्म स्वीकार
किया था। चित्तौड राज्य पर जब यवनों का आक्रमण हुआ तब चित्तौड के राजा रायसिंह ने
राजा बोहित्थ को सहायता हेतु बुलाया। बोहित्थ समझ गये कि गुरुदेव की भविष्यवाणी के
अनुसार मेरा आयुष्य पूरा होने जा रहा है। उन्होंने अपना राज्य बडे पुत्र श्रीकर्ण
को सौंपा और स्वयं चौविहार उपवास कर युद्ध भूमि में उतर पडे। शत्रु को तो भगा दिया
पर स्वयं अपने प्राण न बचा सके। समाधि पूर्वक मृत्यु प्राप्त कर वे बावन वीरों में
एक हनुमंत नामक वीर बने। पुनरासर में उनका स्थान बना हुआ है।
श्रीकर्ण के चार
पुत्र थे- समधर, उद्धरण, हरिदास
एवं वीरदास! श्रीकर्ण ने कई राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार
किया। एक बार शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर वापस लौट रहा था कि उसे पता चला कि
बादशाह का खजाना उधर से जा रहा है। पिताजी के साथ बादशाह का जो वैर था, उसके कारण वह बदला लेने के लिये क्रुद्ध हो उठा। उसने
बीच में ही आक्रमण कर खजाना लूट लिया। इस बात का पता जब बादशाह गौरी को चला तो
उसने विशाल सेना लेकर युद्ध किया। उस युद्ध में श्रीकर्ण मृत्यु को प्राप्त हो
गया। देवलवाडा का राज्य गौरी के हाथ में चला गया। श्रीकर्ण की पत्नी रत्नादे अपने
पुत्रें के साथ पीहर खेडीपुर जाकर रहने लगी।
श्री पद्मावती
देवी ने उसे स्वप्न में आदेश दिया कि कल आचार्य भगवंत कलिकाल केवली श्री
जिनेश्वरसूरि द्वितीय यहाँ आ रहे हैं। उनके पास जाओ। और अपने श्वसुर का अनुकरण
करते हुए उनसे जिनधर्म स्वीकार करो।
दूसरे दिन सुबह
अपने चारों पुत्रें के साथ गुरु भगवंत के पास पहुँची। गुरुदेव की देशना सुनकर सभी
बोध को प्राप्त हुए। गुरुदेव ने ओसवाल जाति में सभी को सम्मिलित करते हुए जैन धर्म
में दीक्षित किया। बोहित्थरा गोत्र का विस्तार किया।
बाद में परिवार
की ओर से शत्रुंजय तीर्थ का छह री पालित संघ निकाला। स्वर्ण मोहर और रजत के थालों
की प्रभावना करने के परिणाम स्वरूप बहु फलिया कहलाये। बहु फलिया अर्थात् बहुत फले।
क्रमशः बहु का बो और बो का फो अपभ्रंश होने से फोफलिया कहलाने लगे।
समधर के पुत्र
तेजपाल ने वि. सं. 1377 में दादा जिनकुशलसूरि का पाटण नगर में पाट महोत्सव आयोजित
किया था। जिसमें उस समय में तीन लाख रूपये का व्यय हुआ था। उन्होंने पाटण में जिन
मंदिर व धर्मशाला का निर्माण करवाया। शत्रुंजय गिरिराज पर कई बिम्बों की प्रतिष्ठा
दादा जिनकुशलसूरि द्वारा संपन्न करवाई।
बोथरा गोत्र की
उत्पत्ति के विषय में एक और वृत्तांत भी उपलब्ध होता है। उसके अनुसार चौहान राजा
सगर के पुत्र बोहित्थ को सांप ने डस लिया था। बहुत उपाय किये पर वह ठीक नहीं हो
पाया। दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि की कृपा से वह स्वस्थ बना। परिणाम स्वरूप वि.
सं. 1170 में उसने जैन धर्म स्वीकार किया। उनके वंशज बोहित्थरा कहलाये। राजस्थान
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान बीकानेर के ग्रंथागार में उपलब्ध हस्तलिखित गुटका में
इग्यारे सतरौ लिखा है। जिसका अर्थ 1170 होता है।
जोधपुर के श्री
केशरियानाथ मंदिर स्थित ज्ञान भंडार के एक गुटके में बोथरा गोत्र की उत्पत्ति का
संवत् स्पष्ट रूप से 1117 दिया है। लेकिन यह सही प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उस समय
दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का जन्म नहीं हुआ था। बोथरा गोत्र के उद्भव का
संवत् 1170 या 1197 सही प्रतीत होता है।
कालांतर में
बोथरा गोत्र की लगभग 9 शाखाऐं हुई। बच्छाजी से बच्छावत बोथरा, पातुजी से पाताणी या शाह बोथरा, जुणसीजी से जूणावत बोथरा, रतनसीजी से रताणी बोथरा, डूंगरसीजी
से डूंगराणी बोथरा, चोपसीजी से चांपाणी बोथरा, दासूजी से दस्साणी बोथरा, मुकनदासजी से मुकीम बोथरा व अजबसीजी से अज्जाणी बोथरा।
राव बीकाजी ने
बोथरा-बच्छावतों के सहयोग से ही 15वीं शताब्दी में बीकानेर की नींव रखी थी। व
राज्य संचालन के के लिये बच्छराज बोथरा को अपना प्रधानमंत्री बनाया था।
बोथरा गोत्र के
इतिहास में कर्मचंद्र बच्छावत का नाम आदर के साथ लिया जाता है। बीकानेर राज्य के
मंत्री रहे। बाद में सम्राट् अकबर की सभा में मंत्री पद पर नियुक्त हुए। दादा
जिनचन्द्रसूरि के परम भक्त कर्मचन्द्र बच्छावत के पुरूषार्थ से ही सम्राट् अकबर
अहिंसा की ओर आकृष्ट हुआ तथा दादा जिनचन्द्रसूरि का भक्त बना।
खरतरगच्छ में
बोथरा गोत्र में बहुत दीक्षाऐं संपन्न हुई हैं। खरतरवसहि सवा सोम टूंक के प्रतिष्ठाकारक
आचार्य भगवंत श्री जिनराजसूरि बीकानेर निवासी बोथरा गोत्र के रत्न थे जिन्होंने नौ
वर्ष की उम्र में दीक्षा गहण की थी। जैसलमेर में तपागच्छीय मुनि श्री सोमविजयजी
महाराज के साथ शास्त्रर्थ किया था,
उसमें विजयी बन कर
खरतरगच्छ की यश पताका फहराई थी। श्री सिद्धाचल की पावन भूमि पर सवा सोमा नी टूंक
अर्थात् खरतरवसही टूंक की प्रतिष्ठा वि. 1675 में आपके करकमलों से संपन्न हुई थी, जिसमें लगभग 700 प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया गया था।
खरतरगच्छाधिपति
आचार्य श्री जिनहेमसूरि,
जिनललितसूरि, जिनसागरसूरि भी बोथरा गोत्र के महापुरूष थे।
अठारहवीं शताब्दी
के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री जिनलाभसूरि भी बीकानेर के बोथरा गोत्र के रत्न थे। बारह
वर्ष की उम्र में दीक्षा ली थी। आत्म प्रबोध जैसे सर्व मान्य ग्रन्थ के रचनाकार
आचार्य श्री के करकमलों से ही सूरत के विश्व विख्यात सहस्रफणा पार्श्वनाथ परमात्मा
की प्रतिठा हुई थी थी।
वर्तमान में मुनि
मोक्षप्रभसागरजी, मुनि समयप्रभसागरजी, मुनि विरक्तप्रभसागरजी, मुनि
श्रेयांसप्रभसागरजी बोथरा गोत्र के हैं,
जो संयम की आराधना कर
रहे हैं।
BOTHRA GOTRA HISTORY बोथरा गोत्र का इतिहास
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