रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक
गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
इतिहास के पन्नों
पर रांका, सेठिया आदि गोत्रीय जनों के शासन प्रभावक
अनूठे कार्य स्वर्ण स्याही से अंकित है। इस गोत्र की रचना का इतिहास विक्रम की
बारहवीं शताब्दी का है। गुजरात का वल्लभीपुर नगर वला के नाम से भी प्रसिद्ध था।
वहॉं रहते थे दो भाई! गोड राजपूत वंश के थे। नाम थे उनके काकू और पातांक! बहुत
गरीब थे।
अपनी गरीबी से
बहुत तंग आ गये थे। पर कोई उपाय नहीं था। किसी ज्येातिष के जानकार व्यक्ति ने उनका
हाथ व ललाट की रेखाऐं देख कर बताया कि इसी वल्लभी में तुम्हारा भाग्योदय होने वाला
है। तुम राजमान्य हो जाओगे। बहुत बडे धनवान बन जाओगे।
पर बाद में राजा
किसी कारणवश तुमसे रूष्ट हो जायेगा। परिणामस्वरूप तुम यवनों की सेना का साथ देकर
इस राज्य के ध्वंस में कारण बनोगे।
वल्लभी का नाश
होने पर मरूभूमि की ओर तुम प्रस्थान करोगे। तुम्हारी पांचवीं पीढी में जो संतान
होगी, उससे तुम्हारा कुल विस्तार को प्राप्त
करेगा।
जैसा ज्योतिषी ने
कहा था, वैसा ही हुआ। वल्लभी का नाश होने पर ये
मरूभूमि पाली के पास किसी गांव में खेतीबाडी करने लगे।
इनकी पांचवीं
पीढी में रांका और वांका दो पुत्रें का जन्म हुआ। ये भी बडे होकर खेतीबाडी कर अपना
जीवन निर्वाह करते थे।
खरतरगच्छाचार्य
श्री जिनवल्लभसूरि का उस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। उनके आचार व उपदेशों से
प्रभावित होकर वे नित्य प्रवचन में जाने लगे। धर्म कार्य में रूचि रखने लगे।
आचार्य भगवंत के उपदेशों से तत्वबोध प्राप्त कर अपनी जीवन को आराधना साधना के रंग
से रंगने लगे।
वि. सं. 1185 में
खरतरगच्छाचार्य प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का पदार्पण हुआ। उनके उपदेशों
से रांका व वांका दोनों भ्राताओं ने सपरिवार जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर
सम्यक्त्व प्राप्त किया। गुरुदेव ने वासचूर्ण उनके सिर पर डाल कर रांका व वांका
गोत्र की स्थापना कर उन्हें ओसवाल जाति में सम्मिलित किया।
गुरुदेव की कृपा
से आत्म-धन की प्राप्ति के साथ द्रव्यधन की भी खूब प्राप्ति हुई। यश बढा। एक बार
कोई योगी रसकूंपी लेकर आया और इनसे कहा- यह कूंपी तुम सम्हालना, मैं यात्र करने जाता हूँ।
उस कूंपी में
स्वर्ण रस भरा था। संयोग से गर्मी के कारण उस कूंपी से एक बूंद रस तवे पर गिरा, लोहे का तवा सोने का हो गया।
भाग्यशाली पुरूष
मान उस योगी ने वह कूंपी रांका व वांका को ही भेंट कर दी। इस रस कूंपी से बहुत
सारा स्वर्ण निर्मित कर उसका उपयोग धर्म क्षेत्र व समाज के लिये किया।
स्थानीय राजा को
एक बार किसी कार्य के लिये 56 लाख स्वर्णमुद्राऐं चहिये थी। राजा ने साहूकारों से
निवेदन किया। पर इतनी बडी धनराशि देने के लिये कोई तत्पर नहीं हुआ। तब रांका व
वांका ने यह धन देकर राज्य की रक्षा की। राजा ने प्रमुदित होकर बडे भ्राता रांका
को सेठ व वांका को सेठिया की पदवी दी। सिर पर स्वर्णपट्ट धारण करने की बख्शीश दी।
तब से रांका की
संतान सेठ व सेठी तथा वांका की संतान सेठिया कहलाने लगी। इन्हीं की संतानों से
काला, गोरा, दक
बोंक आदि शाखाऐं भी चली। मूल गोत्र रांका व वांका है।
रांका गोत्र में
बडे महापुरूष हुए हैं। जिन्होंने शासन व गच्छ के लिये बहुत कार्य किये। जैसलमेर के
रांका जयसिंह नरसिंह ने वि. 1459 में जैसलमेर दुर्ग में पार्श्वनाथ परमात्मा का
भव्य जिनमंदिर निर्मित करवाया। इस मंदिर में 1252 जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। सन्
2002 में रांका गोत्र के श्री समरथमलजी परिवार ने पालीताना में सामूहिक चातुर्मास
व उपधान तप का ऐतिहासिक आयोजन करवाया था। उसी परिवार ने अपने गांव उम्मेदाबाद में
जिन मंदिर, दादावाडी, धर्मशाला
का निर्माण स्वद्रव्य से कराया।
सेठिया गोत्र के
बाल मुनि मलयप्रभसागर व साध्वी प्रियमुद्रांजनाश्रीजी हमारे गच्छ समुदाय में संयम
की आराधना कर रहे हैं।
RANKA VANKA SETH SETHIYA रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास
SHETHIYA KALA GORA DAK GOTRA
Comments
Post a Comment
आपके विचार हमें भी बताएं