डोसी/दोसी/दोषी/सोनीगरा
गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
डोसी गोत्र के
इतिहास का संबंध मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि की जन्मभूमि विक्रमपुर से है। उस समय
यह क्षेत्र जैसलमेर में शामिल होने से भाटीपा क्षेत्र कहलाता था।
वहाँ क्षत्रिय
ठाकुर हीरसेन सोनीगरा का राज्य था। उसके एक पुत्र का दिमाग कर्मवश विक्षिप्त था।
योगानुयोग विहार करते हुए महान् शासन शिरोमणि सिद्ध सूरिमंत्र के स्वामी, प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराज
अपने विशाल शिष्य मंडल के साथ वि. सं. 1197 में विक्रमपुर में पधारे।
चूंकि गुरुदेव का
विहार विक्रमपुर में पूर्व में हो चुका था। यही वह क्षेत्र था, जहाँ गुरुदेव महामारी के उपद्रव को शांत किया था! यही
वह नगर था, जहाँ महावीर जिनालय की भव्य प्रतिष्ठा
उनकी पावन निश्रा में संपन्न हुई थी। यही वह क्षेत्र था, जहाँ उन्होंने एक ही दिन 1200 बारह सौ दीक्षाऐं एक साथ
प्रदान करके जिन शासन में एक अनूठे इतिहास की रचना की थी।
वहाँ के प्रायः
सारे लोग गुरुदेव से पूर्ण परिचित थे। गुरुदेव के आगमन का संवाद ज्योंहि ठाकुर
हीरसेन सोनीगरा ने सुना तो वह प्रसन्न हो उठा। उसके हृदय में भाव उठा कि गुरुदेव
वचन सिद्ध महात्मा है। वह शीघ्र अपने विक्षिप्त पुत्र को लेकर गुरुदेव के
श्रीचरणों में पहुँचा और कृपा बरसाने की विनंती करने लगा।
गुरुदेव ने पुत्र
की ओर नजर की, त्योंहि पुत्र उन्मत्त होकर बोलने लगा-
गुरुदेव! इस बालक के पिताजी दोषी है। उन्होंने गलती की है। यह उसी का परिणाम है।
इन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन किया है।
फिर वह पुत्र
जिसके शरीर में व्यंतर ने प्रवेश किया था,
वह सारी कथा सुनाने लगा।
ठाकुर हीरसेन के
कोई पुत्र नहीं था। उसने क्षेत्रपाल की आराधना की। मन्नत मांगी और प्रार्थना की कि
हे क्षेत्रपाल देव! पुत्र होने पर सवा लाख स्वर्णमुद्रा आपको अर्पण करूँगा। उसकी
मन्नत सार्थक हुई। पुत्र हुआ। खेतल नाम रखा।
ठाकुर हीरसेन को
अपना वादा याद आया। पर सवा लाख स्वर्णमुद्राओं के लोभ के कारण उसने क्षेत्रपाल की
पूजा कर अर्पण नहीं की। यह दोषी है। क्षेत्रपाल कुपित हो उठा। इस कारण यह पुत्र
विक्षिप्त है।
गुरुदेव ने
सूरिमंत्रदि महाप्रभावशाली विशिष्ट मंत्रें से अभिमंत्रित कर विशिष्ट मुद्राओं के
साथ वासचूर्ण उस विक्षिप्त खेतल से डाला और तत्काल चमत्कार उपस्थित हुआ। उस
ठाकुर-पुत्र खेतल के शरीर में विद्यमान क्षेत्रपाल देव ने कहा- गुरुदेव! मैं आपको
वंदना करता हूँ। आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ। यह कहकर क्षेत्रपाल ने वहाँ से
प्रस्थान किया। लडका एकदम ठीक हो गया। यह प्रत्यक्ष चमत्कार देख कर लोग अभिभूत हो
उठे। गुरुदेव के चरणों में पुनः पुनः वंदना करने लगे।
गुरुदेव ने ठाकुर
को प्रतिबोध देते हुए कहा- तुम सत्य धर्म को स्वीकार करो। यह जीवन इन्द्रियों के
भोगों में गंवाने के लिये नहीं मिला है। तुम्हें वीतराग परमात्मा के सत्य धर्म को
स्वीकार करना चाहिये। गुरुदेव के उपदेश से सभी प्रभावित हो उठे। चमत्कार तो
प्रत्यक्ष अभी अभी देखा ही था।
वे सभी नतमस्तक
हो गुरुदेव से अपनी शरण में लेने की प्रार्थना करने लगे। सभी ने परमात्मा के व
गुरुदेव के अनुयायी होने के लिये तत्पर हो उठे।
गुरुदेव ने
शासन-प्रवेश-दीक्षा मंत्र प्रदान कर सभी के वासचूर्ण डाला।
चूंकि ठाकुर ने
दोष लगाया था, इस आधार पर दोषी गोत्र प्रदान किया। वे
सभी ओसवाल जाति में सम्मिलित होकर अपने आपको परम धन्य समझने लगे।
दोषी ही अपभ्रंश
में डोशी या डोसी कहलाते हैं। अन्य राजपूत भाई जो श्रावक बने, वे सोनीगरा होने के कारण सोनीगरा कहलाने लगे।
ठाकुर के
प्रधानमंत्री पमार क्षत्रिय सोहनसिंहजी थे। उनके पुत्र पीथलजी ने दादा गुरुदेव
श्री जिनदत्तसूरि से श्रावकत्व ग्रहण किया। वे भी सच्चे जैन बने। उनका परिवार
पीथलिया कहलाया।
इसी दोसी परिवार
में विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में चित्तौडगढ में कर्माशा डोसी हुए, जिन्होंने श्री सिद्धाचल महातीर्थ का सोलहवां
तीर्थोद्धार कराया। उनके वंशज आज भी चित्तौड व उदयपुर में रहते हैं। उदयपुर का
सुप्रसिद्ध पद्मनाभ स्वामी के मंदिर का निर्माण भी इसी डोसी परिवार व नवलखा परिवार
ने करवाया, जिसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के हीरसागरगणि
के करकमलों द्वारा संपन्न हुई थी। उदयपुर का वासुपूज्य भगवान का मंदिर जो कांच के
मंदिर के नाम से सुप्रसिद्ध है,
उसका निर्माण भी इसी
डोसी परिवार द्वारा करवाया गया।
Comments
Post a Comment
आपके विचार हमें भी बताएं