गांग, पालावत,
दुधेरिया, गिडिया,
मोहिवाल, टोडरवाल,
वीरावत आदि गोत्रें का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
मेवाड़ देश के
मोहिपुर नामक नगर पर नारायणसिंह परमार का राज्य था। राज्य छोटा था। एक बार चौहानों
ने मोहिपुर पर चढ़़ाई कर दी। नगर को चारों ओर से घेर लिया। चौहानों की सेना विशाल
थी जबकि मोहिपुर की सेना अल्प! फिर भी बड़ी वीरता के साथ परमारों ने चौहानों के
साथ युद्ध किया। युद्ध लम्बे समय तक चला। न चौहान जीतते दीख रहे थे, न परमार हारते!
पर बीतते समय के
साथ परमारों की सेना अल्प होने लगी। धन का अभाव भी प्रत्यक्ष होने लगा। इस स्थिति
ने शसक नारायणसिंह को चिंतित कर दिया।
अपने पिता को
चिंताग्रस्त देख कर उनके पुत्र गंगासिंह ने कहा- पिताजी! आप चिन्ता न करें। आपको
याद होगा। पहले अपने नगर में जैन आचार्य जिनदत्तसूरि का पदार्पण हुआ था। वे तो अभी
वर्तमान में नहीं है। परन्तु उनके शिष्य एवं पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि अजमेर के
आसपास विचरण कर रहे हैं। उनकी महिमा का वर्णन मैंने सुना है। आप आदेश दें तो मैं
उनके पास जाना चाहता हूँ। वे अवश्य ही हमें इस विपदा से उबारेंगे।
नारायणसिंह ने
कहा- पर तूं उनके पास जायेगा कैसे! अपने नगर को तो चारों ओर से शत्रु सेना ने घेर
रखा है।
गंगासिंह ने कहा-
आपका आदेश प्राप्त कर मैं एक ब्राह्मण का छद्म वेष बना कर जाऊॅंगा।
उसने वैसा ही
किया। उसने आचार्य जिनचन्द्रसूरि के समाचार प्राप्त कर अजमेर के पास किसी गांव में
उनकी शरण में जा पहुँचा। गुरुदेव को वंदन करके अपना दर्द निवेदित किया। प्रार्थना
की कि भगवन्! आप ही हमें उबार सकते हो।
गुरुदेव ने
अत्यन्त धीरज से उनकी सारी बात सुनी। फिर उसे श्रावक धर्म स्वीकार करने का उपदेश
दिया। गुरुदेव का आदेश पाकर उसने सप्त व्यसनों का त्याग किया। वह श्रावक धर्म
स्वीकार करने को उत्सुक हो उठा।
आचार्य
जिनचन्द्रसूरि ने जया विजया जयन्ता अपराजिता देवियों का स्मरण किया। विजया देवी ने
प्रकट होकर एक विशिष्ट अश्व प्रदान किया।
आचार्य
जिनचन्द्रसूरि ने गंगासिंह को बुलाकर वह मांत्रिक अश्व उसे प्रदान किया और कहा-
जाओ! इस एक अश्व के कारण शत्रु सेना को तुम्हारी असंख्य सेना नजर आयेगी। वे वहॉं
से भयग्रस्त होकर विदा हो जायेंगे। पर तुम अपने श्रावक धर्म को याद रखना।
गंगासिंह प्रसन्न
मन से उस घोडे पर सवार हो अपने नगर पहुँचा। ज्योंहि शत्रु सेना की नजर गंगासिंह पर
पडी तो पाया कि लाखों की संख्या में शस्त्र अस्त्र सहित घुडसवार युद्ध के मैदान
में उतर पडे हैं। लगता है किसी बाहर के राजा ने सहयोग के लिये अपनी सेना भेजी है।
चौहानों ने वहॉं
से रवाना होने में जरा भी देर नहीं की। राजा नारायणसिंह अपने किले की प्राचीर से
यह दृश्य देख रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि मेरी सहायता करने के लिये लाखों की
यह सेना किसने भेजी है?
तभी गंगासिंह
उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने आचार्य भगवंत के दर्शन से लेकर सारी कथा अपने
पिताजी को सुना दी।
नारायणसिंह का
हृदय परम श्रद्धा और अहोभाव से भर उठा। राजा नारायणसिंह उपकृत होकर अपने सोलह
पुत्रें को साथ लेकर आचार्य जिनचन्द्रसूरि की सेवा में पहुँचा और अपने नगर में
पदार्पण करने की विनंती की। योगानुयोग गुरुदेव मोहिवाल पधारे।
आचार्य भगवंत का
धर्म उपदेश सुन कर राजा नारायणसिंह को सत्य धर्म का बोध हुआ। उसने परिवार सहित जैन
धर्म को स्वीकार किया।
गुरुदेव ने सोलह
पुत्रें के नाम से सोलह गोत्र स्थापित किये।
सबसे बडे पुत्र
का नाम मोहिवाल था, उसके वंशज मोहिवाल कहलाये।
गंगासिंह से गांग
गोत्र गतिमान् हुआ। दुधेराव के वंशज दुधेडिया/दुधेरिया कहलाये। इसी प्रकार पालावत, गिडिया/गडिया,
बांभी, गोढवाढ,
थरावता, खुरधा,
पटवा, गोप,
टोडरवाल, भाटिया,
आलावत, वीरावत,
गोढ गोत्रें की स्थापना
हुई। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में द्वितीय दादा गुरुदेव मणिधारी श्री
जिनचन्द्रसूरि द्वारा इन गोत्रें की स्थापना हुई है।
अजिमगंज निवासी
दुधेडिया परिवार बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने कई स्थानों पर जिन मंदिर, दादावाडियों आदि का निर्माण किया है।
गिडिया गोत्र के
जोधपुर निवासी श्री राजारामजी बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्तित्व का नाम है। इन्होंने
पूज्य क्षमाकल्याणजी म- की पावन निश्रा में शत्रुंजय तीर्थ का छह री पालित यात्र
संघ के आयोजन में श्री लूणिया परिवार के साथ पूरी भागीदारी निभाई थी। जोधपुर के
समीप मंडोर में श्री पार्श्वनाथ प्रभु के मंदिर का निर्माण आपने ही कराया था।
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