बाफना/नाहटा आदि
गोत्रों का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
गोत्रें की
वंशावली प्रबंधों में यह वर्णन मिलता है कि बाफना गोत्र उन अठारह गोत्रों में से
एक हैं, जिसकी स्थापना आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा
की गई थी।
इतिहास की कसौटी
पर यह वृत्तान्त स्पष्टतः स्वीकृत नहीं है। क्योंकि इन गोत्रें की ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि 11वीं या 12वीं शताब्दी से पूर्व की होने का कोई भी साक्ष्य/प्रमाण उपलब्ध
नहीं है।
बाफना गोत्र का
इतिवृत्त इतिहास के प्राचीन पन्नों पर इस प्रकार प्राप्त होता है।
मालव प्रदेश के
धार नगर की माटी से इस गोत्र का संबंध ज्ञात होता है। पंवार वंश के पृथ्वीपाल का
राज्य था। उनकी सोलहवीं पीढी में जीवन और सच्च नामक दो राजकुमार हुए। किसी कारणवा
उन्होंने धार राज्य का त्याग किया और मारवाड आये। जालोर के राजा से घोर युद्ध हुआ।
कन्नोज के राजा जयचंद से इन्हें सहयोग मिला। पर युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला।
वर्षों तक युद्ध चलने पर भी जय पराजय नहीं हुई। इस बीच उधर विचरण कर रहे खरतरगच्छ
के आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि का साक्षात्कार हुआ। अपनी नम्र प्रार्थनाऐं
उनके चरणों में अर्पित की। धर्म का रहस्य-बोध प्राप्त कर श्रावक जीवन अंगीकार करने
का भाव प्रकट किया। गुरु महाराज ने उन्हें बहुफणा पार्श्वनाथ का
शत्रुंजय-शत्रुविजेता मंत्र दिया। साधना की विधि बताई। एकाग्र मन से किये गये जाप
का परिणाम प्रकट हुआ। शत्रु सेना में खलबली मच गई। शत्रु सेना पर विजय प्राप्त कर
ली।
कुछ वर्षों बाद
अपने उपकारी आचार्य भगवंत के दर्शन की प्यास लिये उपाश्रय गये तब पता चला कि उनका
तो स्वर्गवास हो गया है। उनके पट्ट पर आचार्य जिनदत्तसूरि बिराजमान है। उनकी महिमा
सुन कर उनके पास पहुँचे।
दादा गुरुदेव से
तत्वबोध प्राप्त कर विधि पूर्वक श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया। वि. सं. 1177 में वे
जैन श्रावक बने। चूंकि उन्होंने बहुफणा पार्श्वनाथ के मंत्र की साधना से विजय
प्राप्त की थी। इस कारण गुरुदेव ने उन्हें बहुफणा/बाफना/बापना गोत्र प्रदान किया।
इस गोत्र के अनेक
रत्नों ने जिन शासन की अपूर्व शासन प्रभावना की। जैसलमेर के बाफना (पटवा) परिवार
ने उल्लेखनीय कार्य किये हैं। इस परिवार द्वारा जैसलमेर आदि कई स्थानों पर जिन
मंदिरों का निर्माण करवाया गया। जैसलमेर स्थित पटवों की हवेलियॉं विश्व में
विख्यात हैं। अमरसागर तीर्थ का मंदिर इसी बाफना परिवार की भक्ति का प्रतीक हैं।
जिसकी बारीक कोरणी ऑंखों को तृप्त बना देती है।
वि. सं. 1891 में
खरतरगच्छाचार्य श्री जिन महेन्द्रसूरिजी म- सा- की निश्रा में इसी बाफना परिवार के
सेठ श्री देवराजज बहादुरमलजी आदि ने जैसलमेर से शत्रुंजय तीर्थ हेतु विशाल संघ का
आयोजन किया था। इस संघ में सभी गच्छों के आचार्यों, साधुओं
को निमंत्रित किया गया था। चौरासी गच्छों के कुल इक्कीस सौ साधु साध्वी इस संघ में
सम्मिलित थे।
राजपुताना के कई
राज्यों के खजाने का कार्य बाफना परिवार करता था। एक तरह से वे स्वयं राजा थे।
उदयपुर, कोटा, रतलाम, झालरापाटन,
छोटा शहर आदि कई नगरों
में अपने व्यापार का विस्तार किया। बाफना परिवार की यह विशेषता रही है कि वह अपना
मकान बाद में बनाता, दादावाडी पहले बनाता। उदयपुर, रतलाम,
कोटा, भीलवाडा आदि कई स्थानों पर इसी बाफना परिवार द्वारा
विशाल भूखण्ड लेकर अपने इष्ट दादा गुरुदेव को बिराजमान किया गया। कर्नल टॉड ने
अपने ग्रन्थ में सेठ जोरावलमलजी बाफना की बडी प्रशंसा की है। एक समय मेवाड रियासत
सेठ जोरावरमलजी के पास गिरवी थी। वे ही राज्य का पूरा संचालन करते थे। इसी परिवार
के रायबहादुर सिरेमलजी बाफना सन् 1926 में इन्दौर राज्य के प्राइम मिनिस्टर बने।
इसी बाफना परिवार के श्री सुन्दरलालजी पटवा बडे राजनेता रहे। जिन्होंने मध्यप्रदेश
के सफलतम मुख्यमंत्री के रूप में अपना योगदान दिया।
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