लूंकड गोत्र का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
लूंकड गोत्र की
उत्पत्ति सोलंकी राजपूतों से हुई है। ओसवंश अनुसंधान के आलोक में, ओसवालों की अमरबेल आदि गोत्रें से संबंधित इतिहास
ग्रंथों में इस गोत्र से संबंधित संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध होती है।
मथुरा पर राजा
नरवाहन सोलंकी राज्य करते थे। मिथ्यात्व से परिपूर्ण उनका जीवन था। जीवहिंसा में वे
लगातार लिप्त रहा करते थे।
ऐसे समय में उस
नगर में जैन धर्म के प्रखर आचार्य भगवंत का वहाँ पर पदार्पण हुआ। महामंत्री जो जिन
धर्म के अनुयायी थे, के निवेदन पर एक बार राजा नरवाहन उनके
दर्शन हेतु उपाश्रय में पहुँचा।
गुरु भगवंत की
देशना श्रवण कर उसका मन प्रमुदित हुआ। वह प्रतिदिन आकर आचार्य भगवंत की उपासना
करने लगा। धीरे धीरे गुरु भगवंत की देशना उसके हृदय में रमण करने लगी। वह अहिंसा
धर्म के प्रति आकृष्ट हो गया। कुछ समय बाद उसने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया।
उसके त्याग को देख नगरवासी भी हिंसा का त्याग कर अहिंसा के प्रति अनुरक्त हो उठे।
आचार्य भगवंत ने
एक दिन शुभ मुहूर्त्त में राज परिवार व उनके साथ बडी संख्या में लोगों को जैन धर्म
में दीक्षित कर दिया। वे सभी जिन धर्म का पालन करने लगे।
एक बार राजा
नरवाहन नगर के आगेवान लोगों को लेकर किसी कार्यवश नाणाबेडा गये थे। वहाँ उसका कुछ
दिन रूकना हुआ। सुबह प्रतिदिन परमात्मा के मंदिर में दर्शन वंदन करता। आचार्य
धनेश्वरसूरि महाराज विहार करते हुए नाणा बेडा नगर में पधारे। उनकी धर्मदेशना सुनने
राजा प्रतिदिन जाने लगा।
पूज्य आचार्य
श्री धनेश्वरसूरि महाराज से प्रभावित होकर उसने ओसवाल वंश में सम्मिलित कर गोत्र
प्रदान करने की प्रार्थना की। आचार्य महाराज ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उन्हें
ओसवाल वंश में शामिल करते हुए लूंकड गोत्र प्रदान किया।
लूंकड गोत्र देने
के पीछे एक छोटी-सी घटना है। राजा नरवाहन से किसी व्यक्ति ने कर्ज लिया था। वह
वापस नहीं चुका पा रहा था। एक बार आचार्य महाराज के साथ राजा नरवाहन जिन मंदिर से
उपाश्रय की ओर जा रहा था। सामने से कर्जदार को आते देख राजा नरवाहन ने सोचा कि यह
व्यक्ति मुझे देखेगा तो संकोच का अनुभव करेगा। ऐसा सोचकर वह लुक गया अर्थात् छिप
गया।
आचार्य महाराज ने
इस महत्वपूर्ण घटना के आधार पर लूंकड गोत्र स्थापित किया। ताकि राजा नरवाहन की इस
अनुमोदनीय और अनुकरणीय घटना से सभी सीख प्राप्त करे।
उस समय राजा
नरवाहन के साथ कई और परिवारों ने भी जैन धर्म स्वीकार किया। आचार्य महाराज ने
उन्हें अलग अलग गोत्र प्रदान कर ओसवाल वंश में सम्मिलित किया। वग, ठाकुर,
कावडिया, तलेसरा,
सोलंकी, नाग सेठिया,
रिखब आदि गोत्र उसी समय
बने।
विक्रम की
तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के उपदेशों से प्रभावित
होकर लूंकड गोत्र वालों ने खरतरगच्छ की आम्नाय स्वीकार कर ली।
वि. की 16/17वीं
शताब्दी में हुए खरतरगच्छाचार्य जिनतिलकसूरि लूंकड गोत्र के रत्न थे। उनका जन्म
तिमरी-तिवरी नामक गांव में धारा नामक श्रेष्ठि की धर्म पत्नी धारलदे की रत्नकुक्षि
से हुआ था। वि. सं. 1610 में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। और मात्र 18 वर्ष के संयम
पर्याय के पश्चात् वि. सं. 1628 में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। नवकोटी मारवाड
अर्थात् मेवाड के अधिपति राजा गजसिंह को आपने प्रतिबोध देकर जैन धर्म की शिक्षा
प्रदान की थी। वे आपके परम भक्त थे। उन्होंने आपकी प्रेरणा से अमारि प्रवर्तन किया
था। वि. सं. 1676 में ज्येष्ठ वदि अमावस्या को अनशन पूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ था।
आचार्य श्री
विजयप्रेमसूरि, आचार्य श्री विजयकलापूर्णसूरि, आचार्य श्री विजयकलाप्रभसूरि, आचार्य श्री विजयकीर्तिचन्द्रसूरि, मणिप्रभसागर,
मुनि मनितप्रभसागर आदि
मुनि लूंकड गोत्र के रत्न है। पू- माताजी म- श्री रतनमालाश्रीजी म-, बहिन डॉ- विद्युत्प्रभाश्रीजी, डॉ- नीलांजनाश्रीजी, साध्वी
शुक्लप्रज्ञाश्रीजी आदि लूंकड गोत्रीय हैं जो खरतरगच्छ में संयम की आराधना साधना
कर रहे हैं।
LUNKAD GOTRA HISTORY लूंकड गोत्र का इतिहास LUNKAR LUNKED LUNKER
Comments
Post a Comment
आपके विचार हमें भी बताएं