बोरड/बुरड/बरड
गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
विक्रम की
बारहवीं शताब्दी की यह घटना है। इस घटना का संबंध अम्बागढ के परमार राजा राव बोरड
से है। भावुक प्रकृति का वह राजा शिवजी का परम भक्त था। जो भी साधु संन्यासी मिलते, वह सभी से एक ही प्रार्थना करताकि मुझे आप भगवान शिव
के प्रत्यक्ष दर्शन करा दीजिये। ताकि मैं उनसे यह जान सकूं कि मेरा मोक्ष कब होगा!
इस शर्त को स्वीकार करने वाला कोई संन्यासी बाबा जोगी फकीर उसे नहीं मिला।
प्रथम दादा
गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज वि. सं. 1175 में विहार करते हुए अम्बागढ पधारे।
राजा राव बोरड गुरुदेव के दर्शन पाकर बहुत प्रभावित हुआ। उनके तेजस्वी मुख मंडल को
देख कर राजा को प्रतीत हुआ कि ये कोई बहुत बडे महापुरुष प्रतीत होते हैं। ये मेरी
इच्छा पूरी करेंगे।
वह राजा विनय
पूर्वक गुरुदेव के चरणों में पहुँचा और उसने गुरुदेव से विनयपूर्वक प्रार्थना की
कि वे उसकी मनोकामना पूर्ण करने के लिये भगवान शिव के दर्शन करा देवें।
दादा गुरुदेव ने
अपने ज्ञान से सब लिया। उन्होंने कहा- हे राजन्! शिवजी के दर्शन करा दूंगा, पर मेरी एक शर्त है!
राजा बोला- आपकी
हर शर्त मुझे मंजूर है।
गुरुदेव ने
फरमाया- मेरी शर्त मात्र इतनी है कि शिव जो कहें, जैसा
कहें, वह सब तुम्हें स्वीकार करना होगा।
पल दो पल विचार
कर राजा बोला- आपकी हर शर्त मुझे मंजूर है। भगवान् शिव जो भी, जैसा भी आदेश देंगे, मैं
सहर्ष स्वीकार करुँगा।
दादा गुरुदेव उस
राजा को शिव की एक पिण्डी के पास ले गये और कहा- इस पिंडी पर अपना पूरा ध्यान
केन्द्रित करो। एकाग्र दृष्टि से देखो। पूर्ण एकाग्रता के साथ देखो।
राजा राव बोरड ने
वैसा ही किया। शिवलिंग में से शिवजी प्रकट हुए। आशीर्वाद प्रदान किया। राजा राव
बोरड ने मोक्ष की अभीप्सा शिव के सामने रखी।
शिव ने कहा-
तुम्हें मुक्ति तो गुरु भगवंत ही दिला सकते हैं। उनके वचनों पर चलना होगा। यह कहते
हुए अंगुली का इशारा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि की ओर किया।
वह सारी बात समझ
कर दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि की शरण जा पहुँचा। अपने इष्ट देव भगवान शिव के
दर्शन कर वह धन्य हो गया था। वह तुरंत शिव के वचनानुसार दादा गुरुदेव श्री
जिनदत्तसूरि की सेवा में पहुँचा। उनसे मोक्ष का मार्ग पूछा। गुरुदेव ने उसे
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप धर्म की महिमा समझाई। तत्व का रहस्य
समझ कर वह परम आर्हत् श्रावक बन गया। उसने सपरिवार जैन धर्म को अंगीकार कर लिया।
गुरुदेव ने राजा के नाम को ही गोत्र में परिवर्तित कर उन्हें बोरड गोत्र प्रदान
किया। उच्चारण में कहीं कहीं इसे बुरड,
बरड आदि से भी संबोधित
किया जाता है।
ललवानी/लालणी, बांठिया,
बरमेचा, हरखावत,
मल्लावत, शाहजी गोत्र का इतिहास
ललवानी- इस गोत्र
की स्थापना वि. सं. 1167 में हुई है। घटना रणथम्भोर की है। यहॉं उस समय परमार
क्षत्रिय लालसिंह का राज्य था। उसके सात पुत्र थे। सबसे छोटा पुत्र जिसका नाम
ब्रह्मदेव था, वह जलंधर रोग से ग्रस्त था। उन दिनों उस
नगर में नवांगी वृत्तिकार आचार्य भगवंत श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म-सा- के पट्टधर
आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरीश्वरजी म-सा- का अपने शिष्य मंडल के साथ पदार्पण
हुआ। राजा लालसिंह ने उनकी महिमा सुनी। वह अपने पुत्र के साथ आचार्य भगवंत के पास
पहुँचा। विनयपूर्वक अपने पुत्र की व्याधि की चर्चा की।
आचार्य भगवंत ने
उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- चिंता न करो। पुत्र पूर्ण रूप से स्वस्थ हो
जायेगा। इस आश्वासन को पाकर राजा प्रमुदित हो उठा। वह प्रतिदिन गुरुदेव की सेवा
में आने लगा। गुरुदेव से जैन धर्म के सिद्धान्तों का बोध पाकर वह बहुत प्रभावित
हुआ।
इधर गुरुदेव
आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरीश्वरजी म-सा- के अभिमंत्रित वासचूर्ण से राजा
लालसिंह का पुत्र ब्रह्मदेव पूर्ण स्वस्थ हो गया। गुरुदेव से प्रभावित होकर कृतज्ञ
राजा लालसिंह सपरिवार पूज्य आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि से जैनत्व की दीक्षा ग्रहण
कर श्रावक बन गया। लालसिंह के पुत्र लालाणी के वंशज ललवानी या लालाणी कहलाये।
बांठिया- राजा
लालसिंह के सबसे बडे पुत्र का नाम बंठ्योद्धार था। उनकी संतान बंठ कहलाई। बाद में
उनके द्वारा साधर्मिक बंधुओं में स्वर्ण मोहरों की प्रभावना करने से वे बांठिया
कहलाये।
बरमेचा- राजा
लालसिंह के सबसे छोटे पुत्र जिसका नाम ब्रह्मदेव था। उनके नाम पर उनके वंशज
ब्रह्मेचा या बरमेचा कहलाये।
हरखावत/हरकावत-
राजा लालसिंह के वंश में आगे चल कर हरखाजी नामक श्रावक हुए। वे बडे प्रतापी
व्यक्ति थे। उनके वंशज हरखावत या हरकावत कहलाये। इन्होंने सिरोही, जोधपुर,
जालोर आदि कई क्षेत्रें
में जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। शत्रुंजय का छह री पालित संघ यात्र का
आयोजन किया।
शाहजी- हरखाजी के
पुत्र विमलजी हरकावत मेडता के नामांकित पुरुष थे। भरुच के बादशाह को जरूरत पडने पर
विपुल द्रव्य का सहयोग किया था। तब बादशाह ने उन्हें शाह की पदवी दी थी।
परिणामस्वरूप इनके वंशज शाहजी कहलाये।
मल्लावत- पंवार
राजा लालसिंह के एक पुत्र का नाम मल्ल था। इनके वंशज मल्लावत कहलाये।
इस प्रकार
खरतरबिरुद धारक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि की पट्ट परम्परा में हुए आचार्य प्रवर
श्री जिनवल्लभसूरि की पावन प्रेरणा से ललवानी/लालाणी, बांठिया,
ब्रह्मेचा/बरमेचा, हरकावत,
शाहजी आदि गोत्रें की
स्थापना हुई। ये सभी परस्पर भ्राता हैं।
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