पोकरणा गोत्र का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
यह घटना बारहवीं
शताब्दी की है। दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए
अजमेर पधारे। उन्होंने अपने शिष्यों को आसपास के क्षेत्रें में धर्मप्रचार हेतु
विहरण करने का आदेश दिया। गुरुदेव के शिष्य देवगणि पुष्कर की ओर विहार में थे।
उस समय गांव
हरसौर का रहने वाला राठोड सकतसिंह पुष्कर यात्र करने के लिये आया। माहेश्वरी जाति
की एक मां अपने चार पुत्रें के साथ वहीं यात्र करने के लिये आई हुई थी।
संयोग से जब वह
महिला पुष्कर के तालाब में स्नान कर रही थी,
तब एक विशालकाय मगरमच्छ
ने उस महिला को पकड लिया। वह चिल्लाने लगी।
उसी समय राठोड
सकतसिंह भी स्नान के लक्ष्य से वहॉं आया हुआ था। वह उसी समय उस महिला को बचाने के
लिये तालाब में कूद पडा। उसे भी मगरमच्छ ने पकड लिया।
उसी समय मुनि
देवगणी का उधर आगमन हुआ। यह दृश्य देखा तो उसी समय उवसग्गहरं स्तोत्र का जाप किया।
उवसग्गहरं स्तोत्र की विद्या का विशिष्ट जाप कर वहॉं खडे दो तीन लोगों को तालाब
में जाकर उस महिला व राठोड के प्राण बचाने का आदेश दिया।
गुरुदेव की परम
कृपा से उनके प्राण बच गये। वे सभी गुरुदेव के चरणों में वंदना करने लगे। उन्होंने
गुरुदेव का उपकार माना। प्रार्थना की कि हम आपके श्रीचरणों में क्या अर्पण करें!
तब गुरुदेव ने
धर्मोपदेश देकर कहा- हमारे गुरु महाराज महाप्रभावी आचार्य जिनदत्तसूरि अजमेर
बिराजते हैं। उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करो।
सकतसिंह राठोड
गुरुदेव के दर्शन करने के लिये गये। उनकी निर्मल वाणी श्रवण की। लगातार उनकी
उपासना से उसने प्रभावित होकर श्रावकत्व स्वीकार किया। पुष्कर की इस घटना के कारण
गुरुदेव ने उन्हें पुष्करणा गोत्र देकर ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। कालान्तर
में वे पोकरणा कहलाने लगे।
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