राखेचा/पुगलिया
गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
इस गोत्र की
स्थापना भाटी क्षत्रियों से हुई है। लौद्रवपुर-जैसलमेर में तब भाटी राजा रावल
जेतसी का राज्य चल रहा था। चर्चा वि. सं. 1187 के काल की है। रावल जेतसी का पुत्र
कुष्ठ रोग से ग्रस्त था। राजा अपने पुत्र की इस व्याधि से बहुत चिन्तित था।
उसने कई स्थानों
पर देवी देव मनाये, परन्तु पुत्र स्वस्थ नहीं हुआ। अपनी कुल
देवी का ध्यान कर सोया था कि स्वप्न में उसे संकेत मिला कि जैन आचार्य जिनदत्तसूरि
के चरणों की सेवा करो,
उनकी सेवा से ही
तुम्हारा पुत्र स्वस्थ होगा।
उस समय दादा
गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि सिंध देश में बिराज रहे थे। रावल जेतसी ने खोज कर सिंध
देश की यात्र की। गुरुदेव के चरणों में लौद्रवपुर पधारने की विनंती की। उसने अपनी
भाषा में निवेदन करते हुए कहा-
गुरुदेव आपके
दर्श कर, मन में भया उच्छाह।
लौद्रव श्री संघ
आपके, दर्शन की राखेचाह।।
हे गुरुदेव!
लौद्रवपुर जैसलमेर का श्री संघ आपके सानिध्य का प्यासा है। आपश्री को पधारना है।
मेरी समस्या का समाधान भी आपके आशीर्वाद से ही संभव होगा।
गुरुदेव शासन की
प्रभावना का संकेत समझ कर सिंध देश से विहार कर लौद्रवपुर पधारे। श्री संघ व रावल
जेतसी ने पूज्यश्री का ठाटबाट से स्वागत किया।
गुरुदेवश्री की
धर्मदेशना श्रवण करने के लिये जनता उमड पडी। रावल जेतसी भी धर्म देशना श्रवण करने
नित्य आने लगा।
एक दिन अपने
व्याधिग्रस्त पुत्र को लेकर रावल जेतसी उपाश्रय में पहुँचा। गुरुदेव ने वासचूर्ण
डाल कर कहा- परमात्मा के प्रक्षाल जल का छिडकाव करो। तीन दिन में ही गुरुदेव के
वासचूर्ण व पक्षाल जल के प्रभाव से पुत्र केल्हण पूर्ण निरोगी हो गया। यह चमत्कार
देख कर सभी के हृदय में गुरुदेवश्री व जिनधर्म के प्रति श्रद्धा प्रकट हुई।
पुत्र केल्हण
वैराग्यवासित हो उठा। उसने गुरुदेव से दीक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की।
गुरुदेव ने
भाविभाव जान कर कहा- तुम्हें बारह व्रत स्वीकार करने हैं। विधि विधान के साथ उसे परमात्मा
व सकल श्री संघ की साक्षी से श्रावक धर्म अंगीकार कराया। राखे चाह अर्थात् चाह
रखता है संयम की! इस अर्थवान् गंभीर शब्द के आधार पर उसे राखेचा गोत्र प्रदान
किया। तब से उनका परिवार राखेचा कहलाया।
राखेचा परिवार के
ही कुछ लोग पुंगल जाकर बसे। वहाँ से जब वे अन्यत्र बसने के लिये गये, तब पुंगल से आने के कारण वहाँ के लोगों ने उन्हें
पुंगलिया कहा। इस प्रकार पुंगलिया गोत्र की रचना हुई। राखेचा व पुंगलिया एक ही
गोत्र के हैं।
कर्नल टाड ने
राखेचा गोत्र के संबंध में लिखा है कि भाटी राजा केहर के वंश में आलून हुआ। उस आलून
के चार पुत्र थे- देवसी,
त्रिपाल, भवानी और राखेचा! राखेचा के वंशजों ने कृषि कार्य का
त्याग कर व्यापार करना प्रारंभ किया। बाद में वे ओसवालों में सम्मिलित हो गये। इस
प्रकार राखेचा के वंशज राखेचा कहलाये।
यति श्रीपालचंदजी
के अनुसार पुंगल का राजा भाटी राजपूत सोनपाल था। उसके पुत्र केल्हणदे को कोढ रोग
हुआ। वि. सं. 1187 में आचार्य जिनदत्तसूरि पधारे और उनकी कृपा से केल्हणदे का कोढ
रोग दूर हुआ। राजा सोनपाल ने जिन धर्म स्वीकार किया। उसके वंशज राखेचा कहलाये।
पूंगल से अन्यत्र बसने के कारण वे पुंगलिया कहलाये।
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