बरडिया गोत्र का
इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
बरडिया गोत्र के
इतिहास को जानने के लिये हमें राजा भोज के वर्तमान में प्रवेश करना होगा। धारानगरी
पर राजा भोज के शासन के बाद उस राज्य पर तंबरों ने आक्रमण कर मालव देश का राज्य
हथिया लिया।
भोजराजा के
निहंगपाल, तालणपाल, लक्ष्मणपाल
आदि 12 पुत्र थे। वे सभी धारा नगरी को छोड कर मथुरा नगर में निवास करने लगे। मथुरा
नगर में निवास करने के कारण वे माथुर कहलाने लगे।
उस समय वि. सं. 954
में आचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरि पधारे। लक्ष्मणपाल ने गुरु भगवंत का उपदेश सुना।
बहुत भक्ति करने लगा। एक बार उसने गुरु भगवंत से अपनी दशा का वर्णन करते हुए अपनी
पीडा व्यक्त की।
आचार्य भगवंत ने
फरमाया- धर्म की आराधना करने से ही कार्य सिध् होता है। तुमने धर्म सुना है...
समझा है। अब इसे फलित करने का समय आ गया है। तुम सत्य धर्म को स्वीकार करो।
आचार्य भगवंत का
प्रेरणात्मक उपदेश प्राप्त कर उसने वीतराग परमात्मा का शुध् धर्म- जिन धर्म
स्वीकार कर लिया।
आचार्य भगवंत ने
लाभालाभ का कारण जान कर कहा- तुम्हारे मकान के पीछे के हिस्से में भूमि में बहुत
सारा धन दबा हुआ पडा है। लेकिन उसका अधिकाधिक उपयोग धर्मक्षेत्र में करना।
लक्ष्मणपाल ने
वैसा ही किया। धन का अथाह निधान प्राप्त कर उसने धर्म मार्ग में उस द्रव्य का
सदुपयोग करना प्रारंभ किया।
श्री सिद्धाचल
महातीर्थ के विशाल संघ का आयोजन किया। लक्ष्मणपाल के तीन पुत्र हुए- यशोधर, नारायण एवं महिचन्द्र!
नारायण के दो
संतान हुई- एक नाग के आकार वाला लडका व दूसरी लडकी! एक बार वह सर्प की आकृति वाला
वह पुत्र रसोई के पास सोया हुआ था। आलोटता हुआ वह चूल्हे के एकदम पास पहुँच गया। तभी
सूर्योदय से थोडा पहले उसकी बहिन पानी गरम करने के लिये वहॉं पहुँची। थोडा अंधेरा
था। उस अंधकार में उसे अपना भाई नजर नहीं आया। और चूल्हे में आग लगा दी। वह सर्प
आकृति वाला उसका भाई जल कर मृत्यु को प्राप्त हो गया।
मर कर वह व्यंतर
बना। नागदेव के रूप में आकर अपनी बहिन को पीडा देने लगा। विधि विधान कराने पर वह
बोला- जब तक मैं व्यंतर योनि में हूँ,
तब तक मैं कष्ट देता रहूँगा।
लोग इकट्ठे हुए।
वे चिंतन करने लगे- यह बात सही है या गलत! इसकी परीक्षा ली जानी चाहिये। एक
व्यक्ति जिसकी कमर में बहुत दर्द रहता था। उसे आगे कर देव से कहा- यदि तूं सच्चा
देव है तो इसका दर्द दूर कर दे।
नागदेव ने कहा-
जाओ! इस घर की दीवार का स्पर्श कर लो,
पीडा दूर हो जायेगी।
उसकी कमर स्पर्श करते ही ठीक हो गई। तब नागदेव ने लक्ष्मणपाल को वर दिया कि जिसे
भी चणक की पीडा होगी,
वह यदि तुम्हारे घर का
स्पर्श करेगा तो तीन दिन में वह ठीक हो जायेगा।
देव ने उसे वर
दिया, इस आधार पर बरडिया गोत्र की स्थापना हो
गई। उसका परिवार बरडिया कहलाने लगा। उन्हीं नेमिचन्द्रसूरि के तीसरे पाट पर आचार्य
जिनेश्वरसूरि हुए जिन्हें खरतर बिरूद मिला।
एक अन्य उल्लेख
के अनुसार इस गोत्र की उत्पत्ति पंवार वंशीय राजपूतों से मानी जाती है। पंवार
लखनसी के पुत्र बेरसी को आचार्य उद्योतनसूरि की प्रेरणा मिली। उनके उपदेशों को
प्राप्त कर उसके परिवार ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। चूंकि उसे आचार्य भगवंत ने
बड के नीचे उपदेश देकर जैन बनाया था,
इस कारण उनका गोत्र ‘बड दिया’
हुआ। कालांतर में बडदिया
बरडिया हो गया।
जैन सम्प्रदाय
शिक्षा के अनुसार राजा भोज के वंशज लक्ष्मणपाल मथुरा से कैकेई ग्राम जा बसे। वहॉं
संवत् 1037 में आचार्य श्री वर्धमानसूरि (खरतरबिरूद धारक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि
के गुरु महाराज) की प्रेरणा से जैन धर्म ग्रहण कर लिया। व्यंतर देव के द्वारा वर
देने के कारण उनके वंशज वरदिया कहलाने लगे।
बरडिया गोत्र में
समराशाह हुए, जो जैसलमेर के दीवान रहे थे। उनके पुत्र
मूलराज भी वर्षों तक जेसलमेर के दीवान रहे। वर्षों तक मूलराजजी के वंशजों ने
जैसलमेर के मंदिरों की व्यवस्था सम्हाली।
जैसलमेर के ही
बरडिया दीपा ने वि. सं. 1413 में जैसलमेर के किले में महावीर स्वामी प्रभु का
मंदिर बनवाया। जैसलमेर के मेहता रामसिंहजी बरडिया ने अपनी हवेली में जैन मंदिर का
निर्माण कराया था। इसी प्रकार मेहता धनराजजी बरडिया ने भी अपनी हवेली में जिन
मंदिर का निर्माण कराया था।
साध्वी प्रियविनयांजनाश्रीजी व साध्वी
प्रियमंत्रंजनाश्रीजी ये दोनों बहिनें बरडिया गोत्र के रत्न हैं जो संयम की आराधना
कर रहे हैं।
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