खांटेड/कांटेड/खटोड/खटेड/आबेडा
गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज
इस गोत्र का
उद्भव चौहान राजपूतों से हुआ है। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जिन्होंने
अपने जीवन का लक्ष्य गोत्र-निर्माण और जैन श्रावक निर्माण बनाया था, वे विहार करते हुए एक बार वि. सं. 1201 में मारवाड के
खाटू गांव में पधारे।
गुरुदेव की
अमृतमयी वैराग्यभरी देशना श्रवण करने के लिये समस्त जातियों के भव्य लोग उपस्थित
होने लगे। गुरुदेव ने जीवन के लक्ष्य विषय को प्रवचन का आधार बनाया।
इस मानव जीवन को
सफल करने का एक ही उपाय है- धर्म से जुडना... अपनी आत्मा से जुडना... सर्वविरति
स्वीकार करना। सर्व विरति संभव न हो तो देश विरति स्वीकार कर सच्चा श्रावक बनना।
गुरुदेव के
उपदेशों को श्रवण कर लोगों की मनोवृत्ति परिवर्तित होने लगी। हिंसा का त्याग कर
जीवन को करुणामय बनाने का संकल्प ग्रहण करने लगे।
चौहान राजपूत
श्री बुधसिंह व अडपायतसिंह दोनों भाई थे। वे गरीब थे। धन की कामना थी। गुरुदेव का
नाम सुना तो वे प्रतिदिन प्रवचन में आने लगे। उस परिवार की दिनचर्या बदल गई थी।
गुरुदेव के प्रभाव से वह कुछ ही दिनों में धनवान हो गया।
उसने माना कि यह
सब गुरुदेव का ही चमत्कार है। उनकी साधना का ही प्रभाव है। जबसे गुरुदेव के संपर्क
में हम आये हैं, तब से निरन्तर धनलाभ हो रहा है।
उन्होंने गुरुदेव
के समक्ष भावुक होकर प्रार्थना की- हमें धर्म प्रदान कीजिये। पाप से छुटकारा
दिलाईये।
गुरुदेव ने
उन्हें जैन श्रावकाचार समझाया। उन्होंने सहज स्वीकार कर लिया।
गुरुदेव ने उनके
सिर पर वासचूर्ण डाला। बुधसिंह चूंकि खाटू गांव के रहने वाले थे अतः खाटू से
खांटेड कहलाये। कालान्तर में खांटेड का कांटेड, खटोड, खटोल आदि अपभ्रंश हो गये।
अडपायतसिंह से
आवेडा गोत्र बना। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि ने वि. सं. 1201 में इन
गोत्रें की स्थापना कर ओसवंश में सम्मिलित किया।
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