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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

20 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

20   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जीवन को हम गणित से जोड कर जीते हैं। गणित की फ्रेम में ही हमारी सोच गति करती है। अतीत से प्रेरणा लेनी हो, वर्तमान का निर्धारण करना हो या भविष्य की आशा भरी कल्पनाओं में डुबकी लगानी हो, हमारे सोच की भाषा गणित में ही डूबी होती है। जीवन गणित नहीं है। इसे गणित के आधार पर जीया नहीं जा सकता। आज उसने 1000 रूपये कमाये हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कल भी वह इतना ही कमायेगा। वह ज्यादा भी कमा सकता है, कम भी! पर सोच ऐसी ही होती है। यह जानने पर भी कि यह संभव नहीं है। उसका अतीत उसकी गणित को प्रमाणित नहीं करता। फिर भी उसकी आशा भरी सोच उसी गणित से चलती है। यही उसके जीवन का सबसे बडा धोखा है। वह एक दिन के आधार पर एक मास की उपलब्धि और उसके आधार पर वर्ष भर की उपलब्धि के मीठे सपनों में खो जाता है। आज मैंने 500 कमाये हैं तो एक माह में 15 हजार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हजार कमा लूंगा। पाँच वर्ष में तो नौ लाख कमा लूंगा। अभी पाँच वर्ष बीते नहीं है। कमाई हुई नहीं है। होगी भी या नहीं, पता नहीं है। पर नौ लाख के उपयोग की मधुर कल्पनाओं में वह खो जाता है।

19 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

19   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. एक व्यापारी अपनी दुकान पर बैठा था। ग्राहक खडा था। महत्वपूर्ण सौदा चल रहा था। सामान तौला जा रहा था! थैलों में भरा जा रहा था। व्यापारी अपने काम में एकाग्र था। ग्राहक की नजर भी पूर्ण एकाग्र थी। सामान कुछ ज्यादा ही तौलना था। पाँच मिनट बीत चुके थे। आधा काम हो चुका था। इतने में एक भिखारी भिक्षा पात्र हाथ में लिये भगवान् के नाम पर कुछ मांगने के लिये आया। उसने अलख लगाई। ग्राहक ने उस ओर मुड कर भावहीन चेहरे से उसे देखा। व्यापारी का ध्यान भी उस ओर चला गया। तुरंत व्यापारी ने अपना काम छोडा! गल्ले के पास में गया। एक रूपया निकाला। भिखारी को देकर फिर काम में लग गया। इस दृश्य ने उस ग्राहक के मन में कई प्रश्न जगा दिये। उसने कहा- भाई साहब! आपने काम बीच में छोडकर वहाँ क्यों गये! यदि आपको एक रूपया भिखारी को देना ही था तो हाथ का काम पूरा करके भी दिया जा सकता था। -क्यों? व्यापारी ने प्रतिप्रश्न किया! -क्यों क्या? आखिर था तो भिखारी ही! कहाँ जाता! आप कहते कि ठहर! मैं अभी रूपया देता हूँ! वो बिचारा कहाँ जाता! पाँच मिनट तो क्या आधा घंटा भी कहीं नहीं जाता!

18 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

18   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. हम क्या जानते हैं? यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है! जितना महत्वपूर्ण यह है कि हम क्या समझते हैं? क्योंकि जानना बुद्धि का परिणाम है... समझना आचार का परिणाम! जानकारी तो हमारी बहुत है! और नई नई बातें जानने के लिये हम प्रतिक्षण लालायित रहते हैं। पर समझने के लिये हमारा मानस और हृदय बहुत कम तैयार होता है। समझ के अभाव में हमारी जानकारी व्यर्थ है। जानकारी के क्षेत्र में वर्तमान का युग बहुत आगे बढ गया है। समझने के क्षेत्र में उतना ही पीछे रह गया है। खाने से पेट भरता है, इस जानकारी के साथ यह समझ जरूरी है कि उस खाने से पेट में विकृति तो पैदा नहीं होगी! बिना जानकारी के जीवन का निर्माण नहीं होता! तो बिना समझ के ‘अच्छे जीवन ’ का निर्माण नहीं हो सकता! दोनों एक दूसरे के पूरक है। आज जानकारी का जमाना है। कम्प्यूटर के जरिये पल भर में पूरे विश्व का ज्ञान हम प्राप्त कर रहे हैं। पर जीवन को समझ नहीं मिल रही है। जीवन का तनाव तो बढता ही जा रहा है। जानकारी ने संबंधों को विस्तार तो बहुत दिया है। पर समझ के अभाव में संबंधों का विकास नहीं हो पाया है।

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जिन्दगी प्रतिक्षण मौत की ओर अग्रसर हो रही है। बीतते हर पल के साथ हम मर रहे हैं। इस जगत में हमारा अस्तित्व कितना छोटा और बौना है....! सारी दुनिया के बारे में पता रखने वाले हम अपने बारे में कितने अनजान है! हमें अपने ही कल का पता नहीं है। कल मेरा अस्तित्व रहेगा या मैं इस दुनिया से विदा हो जाउँगा, हमें पता नहीं है। सोचने के क्षणों में हम अपने भविष्य को कितना लम्बा आंकते हैं! और अपने उस अनजान भविष्य के लिये कितने सपने देखते हैं! उन सपनों को पूरा करने के लिये बिना यह जाने कि वे सपने पूरे होंगे भी या नहीं या उन सपनों के परिणाम जानने के लिये मैं रहूँगा भी या नहीं, कितनी तनतोड मेहनत करते हैं! उर्दु शायर की एक कविता का यह वाक्य कितना मार्मिक संदेश दे रहा है- सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं! इकट्ठा करने में हमारे मन का कोई सानी नहीं है। वह मात्र एकत्र करना जानता है। क्योंकि उपभोग की तो सीमा है! एकत्र करने की कोई सीमा नहीं है। एक यथार्थ है, एक सपना है। यथार्थ की सीमा होती है, सपनों की कोई सीमा नहीं होती! खबर हमें आने वाले पल की भी नहीं है

28 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

28 जटाशंकर       - उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म . सा . पंडित घटाशंकर और ड्राइवर जटाशंकर स्वर्गवासी हुए। स्वर्ग और नरक का निर्णय करने वाले चित्रगुप्त के पास उन दोनों की आत्माऐं एक साथ पहुँची। चित्रगुप्त अपने चौपडे लेकर उन दोनों के अच्छे बुरे कामों की सूची देखने लगे ताकि उन्हें नरक भेजा जाय या स्वर्ग, इसका निर्णय हो सके। लेकिन चौपडों में इन दोनों जीवों का नाम ही नहीं था। चौपडा संभवत: बदल गया था। या फिर क्लर्क ने इधर उधर रख दिया था। आखिर चित्रगुप्त ने उन दोनों से ही पूछना प्रारंभ किया कि तुमने काम क्या किये है, इस जन्म में! अच्छे या बुरे जो भी कार्य तुम्हारे द्वारा हुए हो, हमको बता दें। उसे सुन कर हम आपकी स्वर्ग या नरक गति का निर्णय कर सकेंगे। पंडितजी ने कहना प्रारंभ किया- मैंने जीवन भर भगवान राम और कृष्ण की कथाऐं सुनाई है। सत्संग रचा है। मेरे कारण हजारों लोगों ने राम का नाम लिया है। इसलिये मेरा निवेदन है कि मुझे स्वर्ग ही भेजा जाना चाहिये। वाहन चालक ने अपना निवेदन करते हुए कहा- मुझे भी स्वर्ग ही मिलना चाहिये। क्योंकि मेरे कारण भी लोगों ने लाखों बार राम का नाम लिया है। पंड

नवप्रभात

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नवप्रभात 0  मणिप्रभसागर Gurudev Shree Maniprabh मैं खाली बैठा था। देर तक पढते रहने से मस्तिष्क थोडी थकावट का अहसास करने लगा था। मैंने किताब बंद कर दी थी। आँखें मूंद ली थी। विचारों का प्रवाह आ ... जा रहा था। बिना किसी प्रयास के मैं उसे देख रहा था। मेरा मन उन क्षणों में मेरे ही निर्णयों , विचारों और आचारों की समीक्षा करने लगा था। किसी एक निर्णय पर विचार कर रहा था। उस निर्णय की पूर्व भूमिका , निर्णय के क्षणों का प्रवाह और उस निर्णय का परिणाम मेरी आँखों के समक्ष तैर रहा था। मुझे अपने उस निर्णय से संतुष्टि न थी। क्योंकि जैसा परिणाम निर्णय लेने से पहले या निर्णय करते समय सोचा या चाहा था। वैसा हुआ नहीं था। वैसा हो भी नहीं सकता था। क्योंकि चाह तो हमेशा लम्बी और बडी ही होती है। मैं विचार करने लगा - यदि मैंने ऐसा निर्णय न किया होता तो कितना अच्छा होता ! यह सोच कर मैं दुखी हो गया। दु : ख से भरे उसी मन से विचार करने लगा - ज