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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

VARSHITAP वर्षीतप का पारणा इक्षुरस से ही क्यों ... ???


प्रस्तुति -आर्य मेहुलप्रभसागरजी म. 
विश्व विज्ञान के प्रथम प्रस्तोता भगवान ऋषभदेव को वर्ष भर आहार उपलब्ध नहीं हुआ। कारण कुछ भी रहा हो किन्तु सुदीर्घ तप प्रभु ने जो उस समय सिद्ध किया वह अपने आपमें तप साधना का एक अदभुत इतिहास बन गया। जो सदियों की यात्रा करते हुए आज तक धर्म जगत को आंदोलित, प्रभावित करता रहा। वर्षी-तप के उस इतिहास को आज भी हमारे तपस्वी जन सुदीर्घ तप साधना कर जीवंत रखे हुए हैं। यह अलग बात है कि उसकी परिभाषा तो नहीं बदली किन्तु उसकी प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन आया जो आज के तपस्वी
जनों के शारीरिक योग्यता के अनुरूप ही है।
एक वर्ष तक उपवास और पारणे का क्रम अविकल रूप से चलता है। तप में उपवास के उपरान्त वेला-तेला आदि तप का आधिक्य हो सकता है किन्तु किन्तु पारना तो एक ही करना होता है। उसके बाद अगले दिन उपवास ही करना होता है।
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एक-एक वर्ष के दो तप अनुष्ठान करके एक
वर्षी-तप की पूर्ति मानी जाती है जो आज की शारीरिक परिस्थिति के अनुकूल ही है।
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तपश्चर्या का क्रम पूर्ण होते ही ये तपस्वी इक्षु-रस ग्रहण कर अपना पारणा करते हैं। यह भी परमात्मा भगवान ऋषभ देव के इक्षु-रस से हुए पारणे का ही अनुगमन है।
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एक वर्ष निराहार रहने पर भगवान ऋषभ देव का पारणा श्रेयांश कुमार नाम के एक सम्पन्न व्यक्ति द्वारा अकस्मात ही इक्षु-रस द्वारा संपन्न हो गया था। वह नहीं जानता था कि उसके यहाँ उपलब्ध हुआ इक्षु-रस इतना परमोपयोगी हो जायेगा। हमारे यहाँ पारम्परिक कथानक तो ऐसा है कि प्रभु को किसी ने आहार दिया ही नहीं। महान महिमावान होने के कारण प्रभु को मात्र मूल्यवान वस्त्र ही देना चाहा जिसे उन्होंने नहीं लिया। एक वर्ष तक किसी ने आहार का आग्रह नहीं किया होगा यह बात समझ से बाहर है। यह हो सकता है कि सभी ने श्रेष्ठ स्वदिष्ठ गरिष्ठ आहार देने का आग्रह किया हो किन्तु एन्द्रिक रस विजेता परम पावन परमात्मा ने वह आहार ग्रहण ही नहीं किया। परमात्मा के सामने जो आहार आया होगा वह विकृति जन्य होगा। दूध दही घृत तेल एवं कृत्रिम मिष्टान वाला ऐसा आहार सुदीर्घ तपश्चर्या के अंतर्गत प्राय: अग्राह्य ही रहता है।
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वैसे सभी तपस्वियों का आज भी यही अनुभव रहता है कि पारणे में गरिष्ट आहार देह को सुस्ती और बेचैनी प्रदान करता है। पारणे में हल्का सुपाच्य और विकृति मुक्त आहार होना आवश्यक है।
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इक्षु-रस ही क्यों ?
भगवान श्रेयांस कुमार के द्वार पर आये वहां उसके अपने कार्य हेतु इक्षु-रस उपलब्ध था। उसने निर्दोष और सहज उपलब्ध इक्षु-रस का आग्रह कर लेना उचित समझ कर भाव-भक्ति पूर्वक निवेदन किया और प्रभु ने कर-पात्र आगे कर दिया। एक वर्ष से भी अधिक दिनों से निराहार थे अत: इक्षु-रस यथेष्ठ रूप में ग्रहण कर अपना पारणा किया।
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अन्य वस्तु छोड़ मात्र इक्षु-रस ही क्यों ग्रहण किया ?
इस प्रश्न का उत्तर इक्षु-रस में प्रकृति वश सहज मीठास और उसकी गुणवत्ता में निहित है।
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इक्षु-रस शक्ति प्रद, क्षुधा रोधी और सहज माधुर्य लिए एक स्वादिष्ट पेय है, जिसमें कहीं भी कोई कृत्रिमता नहीं है। इक्षु-रस का चिकित्सीय विश्लेषण करें तो यह कई तरह से स्वास्थ्य के लिए हितावह सिद्ध होगा। अनेक शारीरिक व्याधियों का उपचार इक्षु-रस के माध्यम से भी होता है। समस्त विकृतियों से मुक्त इक्षु-रस एक प्राकृतिक पेय है, उसकी सात्विकता का महत्व देकर प्रभु ने इसे ग्रहण किया।
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विश्व में अनेक प्रकार के कृत्रिम पेय निर्मित हो गए हैं। स्वाद और वर्ण की दृष्टि से वे आकर्षक हो सकते हैं किन्तु स्वास्थ्य के लिए जो सौम्य गुण प्रदान करने का प्रश्न है वह तो इक्षु-रस में ही है। अन्य पेय में यह गुण सर्वतोभावेन नहीं पाया जाता है।
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इक्षु-रस में जो प्राकृतिक सरसता है वह तो निश्चय ही बेजोड़ है। रस वाले फल तो अनेक हैं किन्तु सम्पूर्ण पौधा ही सरस हो ऐसा और कोई पौधा देखने में नहीं आया। विश्व में इक्षु ही एक ऐसा पौधा है जो मूल से लेकर शीर्ष तक रस पूर्ण  होता है। अक्षर वृक्षों के फल सरस होते हैं किन्तु यहाँ तो पूरा पौधा ही सरस है। यह निश्चित ही इस पौधे की विलक्षणता है।
इक्षु के रस में सरसता मिट्टी पानी आदि से सीधी आती है। अन्य फलों में पौधों के माध्यम से आती है।
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भारतीय संस्कृति में इक्षु दंड को अति मंगल मय माना जाता है यही कारण है कि दीपमालिका और अन्य उत्सवों के अवसर पर इक्षु-दंड स्थापित किये जाते हैं।
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लोक मंगल का प्रतीक इक्षु उसके रस से विश्व मंगल के प्रणेता परमात्मा भगवान ऋषभ देव ने पारणा किया।
सुदीर्घ तपश्चर्या के कारण कोष्ठ का संकुचन स्वाभाविक है। उस स्थिति में सम शीतोष्ण इक्षु-रस ही पारणे के लिए सर्वथा उचित रहता है। जिससे कोष्ठ पुन: क्रमश: विकसित होकर कार्य करने लग जाये।
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यही कारण है कि आज भी वर्षी-तप के तपस्वी इक्षु-रस से ही पारणा करते हैं। कितनी ही सुदीर्घ तपश्चर्या क्यों न हो यदि इक्षु-रस को अल्प मात्रा में लेकर पारणा किया जाये तो वह पारणा अवश्य सफल होगा।
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अनेक व्यक्तियों की यह धारणा है कि इक्षु-रस भारी होता है। यह इसलिए सही हो जाती है क्योंकि हम हर चीज़ को पेट भर कर खाने-पीने के आदी हैं। यदि अन्य कोई पदार्थ न लेकर बहुत थोड़ी थोड़ी मात्रा में समय अन्तराल के साथ इक्षु-रस लिया जाये तो यह भारी नहीं होगा। किन्तु स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ होगा। यह अनुभव सिद्ध सत्य है।

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