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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

युगप्रधान दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी खरतरगच्छ सम्प्रदाय एवं जिनशासन के प्रथम दादा गुरुदेव है। दादा गुरुदेव अपने गुणों और अनगिनत चमत्कारों के कारण समूचे श्वेताम्बर समाज में पूजनीय बन गए, क्योंकि प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी का सम्पूर्ण जैन समाज तथा देश के प्रति उपकार असीम है। इसलिए वे गच्छ, समाज तथा सम्प्रदाय की सीमाओं से निर्बंध है।

युगप्रधान दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी खरतरगच्छ सम्प्रदाय एवं जिनशासन के प्रथम दादा गुरुदेव है।
दादा गुरुदेव अपने गुणों और अनगिनत चमत्कारों के कारण समूचे श्वेताम्बर समाज में पूजनीय बन गए, क्योंकि प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी का सम्पूर्ण जैन समाज तथा देश के प्रति  उपकार असीम है। इसलिए वे गच्छ, समाज तथा सम्प्रदाय की सीमाओं से निर्बंध है।
श्री जिनदत्तसूरिजी जीवन श्रमण-संस्—ति का ऐसा जगमगाता आलोक पुंज है, जो शताब्दियों के काल-खण्ड प्रहवन के उपरांत भी हमें आत्म-विकास की राह दिखलाता है, हमारे चरित्र, व्यवहार तथा साधना का मार्ग आलोकित करता है।

गुजरात प्रदेश के धवलक (धोलका) नगर में क्षपणक भक्त हुम्बड ज्ञातीय श्रेष्ठी वाछिग शा की धर्मपत्नी बाहड देवी की रत्नगर्भा कुक्षी से शुभ स्वप्नों सूचित एक पुत्ररत्न का विक्रम स्वंत ११३२ में जन्म हुवा। और शुभ लक्षणों से अंकित होने के कारण बालक का नाम सोमचन्द्र रखा गया।
बचपन में सुसंस्कार सोमचंद्र में कूट-कूट कर भरे हुवे थे और अपना समग्र जीव शासन को सौंपने का निर्णय कर लिया था बस देरी थी अंगुली पकडने की।
जब इस प्रकार की बात चीत का पता उपाध्याय प्रवर श्री धर्मदेवजी को पता चला तो वे चातुर्मास के पश्चात धोलका आये और बालक में अथाह गुणों के भंडार को देखते हुवे सोमचंद्र को दीक्षा देने की स्वी—ति प्रदान की और मात्र ९ वर्ष की उम्र में विक्रम स्वंत ११४१ में दीक्षा प्रदान करके नव दीक्षित मुनि का नाम भी सोम चन्द्र रखा गया।
दीक्षा के कुछ समय बाद ही मुनि सोमचंद्र सर्वदेवगणी आदि के साथ बहिर्भूमि के लिए गए, बाल्यावस्था के कारण सोमचंद्र ने चने के खेत में उगे हुवे पौधो को तोड लिया, वहा सर्वदेवगणी ने इस दृश्य को देख लिया और सीधा बोल दिया और कहा की तुम दीक्षा के लायक नहीं हो, पौधा तोडकर तुमने विराधना की है, अत: तुम रजोहरण और मुखविस्त्रका देकर अपने घर जा सकते हो।
सोमचंद्र ने कहा कि गुरुदेव मैं मानता हुं की मेरी गलती हुई है, लेकिन इस गलती के लिए इतना बडा दण्ड दे रहे है वह उपयुक्त नहीं है। लेकिन फिर भी मेरी दीक्षा के समय जो आपने चोटी ( शिखा) ली थी वह आप मुझे प्रदान करें मैं अपने घर चला जाऊंगा।
बालक की ऐसी प्रतिभाशाली बाते सुनकर वे चौंक गए और कल्पना करने लगे कि वास्तव में ये बालक भविष्य में अत्यंत ही प्रभावशाली आचार्य होगा।
ऐसे थे मेरे गुरुदेव अद्भुत प्रतिभा के धनी बालक सोमचंद्र उम्र के साथ बडे हुवे और ज्ञान तो जैसे उनके अंग अंग से बहता हो। उनके ज्ञान को निर्बाधित रूप से बहता देख और अचानक जब जिनवल्लभसूरि का देवलोक होने पर श्री देवभद्रसूरिजी और उस समय सकल संघ ने मुनि सोमचंद्र को आचार्य की पदवी देने का अपना मानस बना लिया।
राजस्थान के चितौड नगर में विक्रम स्वंत ११६१ वैशाख सुदी प्रतिपदा को सायंकाल के समय श्री जिनवल्लभसूरिजी के पाट पर बडे आरोह-समारोह के साथ पंडित सोमचंद्र गणी स्थापित किये गए और श्री संघ की ओर से नाम पतिवर्तन कर इनका नया नाम आचार्य श्री जिनदत्तसूरि रखा गया।
दादा गुरुदेव के नाम में इतना तेज है इतना अनमोल है कि नाम मात्र लेने से ही आधि व्याधि सब दूर हो जाते है तब आप सोचो जिस समय उनके श्रावक उनके पास होंगे क्या अनमोल समय रहा होगा।
कुछ लोग उनसे इष्र्या करने वाले भी थे, उस समय लोग अन्य गच्छ वाले अपने अपने आचार्यों को युग प्रधान तक भी कहते थे, उस समय युग प्रधान आचार्य कौन? इसका निर्णय करने के लिए नागदेव (अम्बड) ने गिरनार पर्वत पर माँ अम्बिका देवी की आराधना की, देवी ने प्रसन होकर उनकी हथेली पर एक श्लोक लिखा और कहा इसको जो भी पढेगा वो ही युगप्रधान पद का हकदार होगा, अम्बड ने ना जाने कितने ही आचार्यों के पास गया लेकिन देवी द्वारा लिखा गया वो श्लोक कोई भी पढ पाया, अंत में वो दादा गुरुदेव के पास गया आचार्य श्री जी ने स्वप्रंशसात्मक पद्य होने के कारण स्वयं ना पढकर उस पर वासक्षेप डाला और अक्षर स्पष्ट कर दिए और अपने शिष्य को पढने के लिए कहा गया।
आचार्य श्री के शिष्य ने उस गुरु स्तुति को पढा और सबको सुनाया वो स्तुति थी-
दासानुदासा इव सर्व देवा, यदीय पदाब्जतले लुठंति।
मरूस्थली-कल्पतरु-सजीयात्, युग प्रधानो जिनदत्तसूरि:।।
नागदेव को अपार हर्ष हुवा और जिस खोज में निकला था, वह खोज पूर्ण हो गई युग प्रधान आचार्य मिल जाने से वह उनका परम भक्त हो गया, तभी से अम्बिकादत्त युगप्रधान पद धारक जिनदत्तसूरि जी इस भूमंडल में विख्यात हो गए।
वैसे तो दादा गुरु के अनगिनत चमत्कार है लाखों नूतन जैन बनाने वाले और जैन समाज के गोत्रों के रचियता दादा गुरुदेव ने शासन के लिए बहुत काम किया, समग्र जैन समाज को एक करने में इनका काफी योगदान रहा।
उनके चमत्कारों में-
पांच पीर को सिन्धुनदी पर प्रतिबोध।
52 वीरों को वश में किया जो उनके हाजरा हजूर रहते थे। 
64 योगनियो को प्रतिबोध देना।
प्रतिक्रमण में आकाशीय बीजली को काष्ट पात्र में स्तम्भित करना।
मुल्तान में धर्म प्रभावना का चमत्कार।
जैन समाज पर गौहत्या के कलंक का निवारण करना।
प्रवचन में हमेशा देवों का आना आदि कितने ही चमत्कार थे।
दादा गुरुदेव के हर एक चमत्कार का यहाँ वर्णन करना मुमकिन नहीं है।
दादा गुरुदेव ने जैन शासन को अमूल्य सहित्य की अनुपम भेंट दी उसकी भी लम्बी चौडी लिस्ट है।
दादा गुरुदेव का विचरण केंद्र मुख्यत अजमेर और उनके आस पास रहा, दादा गुरुदेव विचरण करते हुवे अजमेर पधारे। अपना अन्तिम समय जानकर समाधी पूर्वक ज्ञान आराधना करते हुवे विक्रम स्वत १२११ में आषाढ शुक्ला ११ को स्वर्ग की और प्रस्थान किया।
यह सत्य है कि जिनदत्तसूरिजी के अग्नि संस्कार के समय उनके चद्दर, चोलपट्टा और मुपति को कुछ नहीं हुवा वो आज भी जैसलमेर के ज्ञान भंडार में दर्शनार्थ उपलब्ध है आप कभी भी जाये तो दर्शन कर सकते है। और यह भी माना जाता है कि दादा गुरुदेव स्वर्ग की ओर प्रस्थान करने के बाद सौधर्म देवलोक में उत्पन हुवे जिस प्रकार वे अपने जीवन में लोगों को प्रभावित करते थे उसी प्रकार आज भी अपने भक्त जनों के मनोरथ को पूर्ण करते है।
ऐसे चमत्कारी दादा गुरुदेव के चरणों में कोटि कोटि वंदन....
दादा गुरुदेव की पूरे भारत भर में दादावाडियां है और लाखों जन की आँखों के तारे बने हुवे है, इनकी मुख्य दादावाडी अजमेर में बनी हुई है आप जब भी जाये आपको वहां के कण कण में और आपके रोम रोम में जैसे दादा गुरुदेव विचरण कर रहै हो ऐसा प्रतीत होता है।
जिन आज्ञा के विरुद्ध कुच्छ भी लिखा गया हो तो मन वचन से मिच्छामी दुक्कडम.....

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