Featured Post
पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823
पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. की निश्रा में होने वाले आगामी महोत्सवों में आप सभी को भावभरा आमंत्रण।
- Get link
- Other Apps
ता. 26 जनवरी 2015 तिरूप्पुर में अंजनशलाका प्रतिष्ठा
ता. 2 फरवरी 2015 कोयम्बतूर में अंजनशलाका प्रतिष्ठा
ता. 27 फरवरी 2015 कन्याकुमारी में अंजनशलाका प्रतिष्ठा
ता. 7 मार्च 2015 तिरूनलवेली में नवपद पट्ट प्रतिष्ठा
ता. 25 अप्र्रेल 2015 चैन्नई में माता पुत्र की भागवती दीक्षा
ता. 26 अप्रेल 2015 चैन्नई में अंजनशलाका प्रतिष्ठा
ता. 29 मई 2015 सिंधनूर में भागवती दीक्षा
ता. 25 जुलाई 2015 पूज्यश्री का रायपुर नगर में चातुर्मास हेतु प्रवेश
- Get link
- Other Apps
Popular posts from this blog
AYRIYA LUNAVAT GOTRA HISTORY आयरिया/लूणावत गोत्र का इतिहास
आयरिया/लूणावत गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी म-सा- का विचरण सिंध देश में चल रहा था। घटना वि. सं. 1198 की है। वे विहार करते हुए पधारे थे और नगर के बाहर सिंधु नदी के किनारे एक वृक्ष तले विश्राम कर रहे थे। उनके शिष्य शुद्ध आहार पानी गवेषणा के लिये नगर में गये थे। संयोग ऐसा बना कि जब वे मुनि गोचरी के लिये पधार रहे थे , उस समय नगर का शासक अभयसिंह भाटी घोडे पर सवार होकर शिकार के लिये निकला था। अभयसिंह की नजर मुनि पर पड़ी। मुनि को देखकर राजा ने अपना मुँह फेर लिया। मन में आया- इस मुंड ने अपशकुन कर दिया। राजा का इशारा प्राप्त कर राज-सेवकों ने मुनि के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया। मुनि समताधारी थे। योगानुयोग उसी समय उन सेवकों को खून की उल्टियॉं होने लगी।
RANKA VANKA SETH SETHIYA रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास
रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इतिहास के पन्नों पर रांका , सेठिया आदि गोत्रीय जनों के शासन प्रभावक अनूठे कार्य स्वर्ण स्याही से अंकित है। इस गोत्र की रचना का इतिहास विक्रम की बारहवीं शताब्दी का है। गुजरात का वल्लभीपुर नगर वला के नाम से भी प्रसिद्ध था। वहॉं रहते थे दो भाई! गोड राजपूत वंश के थे। नाम थे उनके काकू और पातांक! बहुत गरीब थे। अपनी गरीबी से बहुत तंग आ गये थे। पर कोई उपाय नहीं था। किसी ज्येातिष के जानकार व्यक्ति ने उनका हाथ व ललाट की रेखाऐं देख कर बताया कि इसी वल्लभी में तुम्हारा भाग्योदय होने वाला है। तुम राजमान्य हो जाओगे। बहुत बडे धनवान बन जाओगे। पर बाद में राजा किसी कारणवश तुमसे रूष्ट हो जायेगा। परिणामस्वरूप तुम यवनों की सेना का साथ देकर इस राज्य के ध्वंस में कारण बनोगे। वल्लभी का नाश होने पर मरूभूमि की ओर तुम प्रस्थान करोगे। तुम्हारी पांचवीं पीढी में जो संतान होगी , उससे तुम्हारा कुल विस्तार को प्राप्त करेगा।
RAKHECHA PUGLIYA GOTRA HISTORY राखेचा/पुगलिया गोत्र का इतिहास
राखेचा/पुगलिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र की स्थापना भाटी क्षत्रियों से हुई है। लौद्रवपुर-जैसलमेर में तब भाटी राजा रावल जेतसी का राज्य चल रहा था। चर्चा वि. सं. 1187 के काल की है। रावल जेतसी का पुत्र कुष्ठ रोग से ग्रस्त था। राजा अपने पुत्र की इस व्याधि से बहुत चिन्तित था। उसने कई स्थानों पर देवी देव मनाये , परन्तु पुत्र स्वस्थ नहीं हुआ। अपनी कुल देवी का ध्यान कर सोया था कि स्वप्न में उसे संकेत मिला कि जैन आचार्य जिनदत्तसूरि के चरणों की सेवा करो , उनकी सेवा से ही तुम्हारा पुत्र स्वस्थ होगा। उस समय दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि सिंध देश में बिराज रहे थे। रावल जेतसी ने खोज कर सिंध देश की यात्र की। गुरुदेव के चरणों में लौद्रवपुर पधारने की विनंती की। उसने अपनी भाषा में निवेदन करते हुए कहा- गुरुदेव आपके दर्श कर , मन में भया उच्छाह। लौद्रव श्री संघ आपके , दर्शन की राखेचाह।।
Comments
Post a Comment
आपके विचार हमें भी बताएं