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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823
Tirthankar or Lanchhan
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1. श्री ऋषभनाथ- बैल, वृषभ
2. श्री अजितनाथ- हाथी,गज
3. श्री संभवनाथ- अश्व (घोड़ा),
4. श्री अभिनंदननाथ- बंदर,कपि
5. श्री सुमतिनाथ- क्रोंच,
6. श्री पद्मप्रभ- कमल,
7. श्री सुपार्श्वनाथ-साथिया (स्वस्तिक),
8. श्री चन्द्रप्रभ- चन्द्रमा,
9. श्री सुविधिनाथ- मकर,
10. श्री शीतलनाथ- श्रीवत्स,
11. श्री श्रेयांसनाथ-खड्ग,
12. श्री वासुपूज्य- भैंसा,महिष
13. श्री विमलनाथ- वराह,
14. श्री अनंतनाथ- स्येन,
15. श्री धर्मनाथ- वज्र,
16. श्री शांतिनाथ- मृग(हिरण),
17. श्री कुंथुनाथ- बकरा,
18. श्री अरहनाथ- नंद्यावर्त,
19. श्री मल्लिनाथ- कलश,घट
20. श्री मुनिस्रुव्रतनाथ- कच्छप (कछुआ) ,कूर्म
21. श्री नमिनाथ- नीलकमल,
22. श्री नेमिनाथ- शंख,
23. श्री पार्श्वनाथ- सर्प
24. श्री महावीर- सिंह
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आयरिया/लूणावत गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी म-सा- का विचरण सिंध देश में चल रहा था। घटना वि. सं. 1198 की है। वे विहार करते हुए पधारे थे और नगर के बाहर सिंधु नदी के किनारे एक वृक्ष तले विश्राम कर रहे थे। उनके शिष्य शुद्ध आहार पानी गवेषणा के लिये नगर में गये थे। संयोग ऐसा बना कि जब वे मुनि गोचरी के लिये पधार रहे थे , उस समय नगर का शासक अभयसिंह भाटी घोडे पर सवार होकर शिकार के लिये निकला था। अभयसिंह की नजर मुनि पर पड़ी। मुनि को देखकर राजा ने अपना मुँह फेर लिया। मन में आया- इस मुंड ने अपशकुन कर दिया। राजा का इशारा प्राप्त कर राज-सेवकों ने मुनि के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया। मुनि समताधारी थे। योगानुयोग उसी समय उन सेवकों को खून की उल्टियॉं होने लगी।
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रांका/वांका/सेठ/सेठिया/काला/गोरा/दक गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इतिहास के पन्नों पर रांका , सेठिया आदि गोत्रीय जनों के शासन प्रभावक अनूठे कार्य स्वर्ण स्याही से अंकित है। इस गोत्र की रचना का इतिहास विक्रम की बारहवीं शताब्दी का है। गुजरात का वल्लभीपुर नगर वला के नाम से भी प्रसिद्ध था। वहॉं रहते थे दो भाई! गोड राजपूत वंश के थे। नाम थे उनके काकू और पातांक! बहुत गरीब थे। अपनी गरीबी से बहुत तंग आ गये थे। पर कोई उपाय नहीं था। किसी ज्येातिष के जानकार व्यक्ति ने उनका हाथ व ललाट की रेखाऐं देख कर बताया कि इसी वल्लभी में तुम्हारा भाग्योदय होने वाला है। तुम राजमान्य हो जाओगे। बहुत बडे धनवान बन जाओगे। पर बाद में राजा किसी कारणवश तुमसे रूष्ट हो जायेगा। परिणामस्वरूप तुम यवनों की सेना का साथ देकर इस राज्य के ध्वंस में कारण बनोगे। वल्लभी का नाश होने पर मरूभूमि की ओर तुम प्रस्थान करोगे। तुम्हारी पांचवीं पीढी में जो संतान होगी , उससे तुम्हारा कुल विस्तार को प्राप्त करेगा।
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