17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जिन्दगी प्रतिक्षण मौत की ओर अग्रसर हो रही है। बीतते हर पल के साथ हम मर रहे हैं। इस जगत में हमारा अस्तित्व कितना छोटा और बौना है....! सारी दुनिया के बारे में पता रखने वाले हम अपने बारे में कितने अनजान है! हमें अपने ही कल का पता नहीं है। कल मेरा अस्तित्व रहेगा या मैं इस दुनिया से विदा हो जाउँगा, हमें पता नहीं है। सोचने के क्षणों में हम अपने भविष्य को कितना लम्बा आंकते हैं! और अपने उस अनजान भविष्य के लिये कितने सपने देखते हैं! उन सपनों को पूरा करने के लिये बिना यह जाने कि वे सपने पूरे होंगे भी या नहीं या उन सपनों के परिणाम जानने के लिये मैं रहूँगा भी या नहीं, कितनी तनतोड मेहनत करते हैं! उर्दु शायर की एक कविता का यह वाक्य कितना मार्मिक संदेश दे रहा है- सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं! इकट्ठा करने में हमारे मन का कोई सानी नहीं है। वह मात्र एकत्र करना जानता है। क्योंकि उपभोग की तो सीमा है! एकत्र करने की कोई सीमा नहीं है। एक यथार्थ है, एक सपना है। यथार्थ की सीमा होती है, सपनों की कोई सीमा नहीं होती! खबर हमें आने वाले पल की भी नहीं है