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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

MINNI KHAJANCHI BHUGDI GOTRA HISTORY मिन्नी/खजांची/भुगडी गोत्र का इतिहास

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मिन्नी/खजांची/भुगडी गोत्र का इतिहास ये तीनों गोत्र एक ही परिवार की शाखाऐं हैं। इस गोत्र की उत्पत्ति चौहान राजपूतों से हुई है। संवत् 1216 में दूसरे दादा गुरुदेव मणिधारी जिनचन्द्रसूरीश्वरजी म- सा- के करकमलों द्वारा इस गोत्र की स्थापना हुई थी। इतिहास कहता है कि एक बार मोहनसिंह चौहान उधार वसूली करके काफी धनराशि के साथ अपने शहर की ओर लौट रहे थे। बीच में डाकुओं का सामना हो गया। शस्त्रधारी डाकुओं के सामने सारा धन , सोना चांदी मोहरें आभूषण डाकुओं के हवाले कर दिये। पर बातों ही बातों में डाकुओं को उलझा कर एक रूक्के पर डाकुओं के सरदार के हस्ताक्षर करवा लिये। उस रूक्के में लूंटे गये धन का पूरा विवरण लिखा था , जिसे डाकु समझ नहीं पाये। साथ ही वहीं पर राह चलती एक वृद्ध महिला की साक्षी भी उसमें अंकित कर दी। कुछ समय बाद संयोगवश डाकू उसी नगर में सेठ मोहनसिंह चौहान से लूंटा हुआ माल बेचने के लिये आये। इसे भी संयोग ही कहना चाहिये कि माल बेचने सेठ मोहनसिंह की दुकान के पगथिये चढने लगे। माल देखते ही मोहनसिंह ने डाकुओं को पहचान लिया। डाकुओं को बातों में उलझाकर अपने सेवक द्वारा वहाँ के राजा के पास पूर

SUCHANTI SANCHETI GOTRA HISTORY सुचन्ती/संचेती गोत्र का इतिहास

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सुचन्ती/संचेती गोत्र का इतिहास इस गोत्र की स्थापना वि. सं. 1026 या 1076 में हुई है। खरतरबिरूद प्राप्त करके आचार्य जिनेश्वरसूरि अपने गुरुदेव आचार्य श्री वर्धमानसूरि व अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए योगिनीपुर दिल्ली पधारे। वहाँ सोनीगरा चौहान वंश का राज्य था। राजा लखमण के तीन पुत्र थे- बोहित्थ , लवण व जोधा! ज्येष्ठ पुत्र बोहित्थकुमार बगीचे में घूम रहा था। उसे वहाँ एक जहरीले सर्प ने काट लिया। राजकुमार बेहोश हो गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे होश नहीं आया। वैद्यों ने उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी। राजा शोकाकुल हो गया। प्रजा में भी पीडा का वातावरण फैल गया। राजकुमार को श्मशान घाट ले जाया गया। रास्ते में ही उपाश्रय था , जहाँ आचार्य वर्धमानसूरि , आचार्य जिनेश्वरसूरि पांचसौ मुनियों के साथ रूके हुए थे। आचार्य भगवंत को देख राजा रूदन कर उठा। आचार्य भगवंत के पास जाकर अपने पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना करने लगा। आचार्य भगवंत ने भविष्य की उज्ज्वलता व धर्म के विशिष्ट लाभ होते देख बोहित्थकुमार को पास बुलाया। उसकी देह देख कर ही ज्ञानी गुरु भगवंत समझ गये कि यह सर्प-विष के कारण बेहोश हु

DHARIWAL DHADIWAL TANTIYA KOTHARI GOTRA HISTORY धारीवाल/धाडीवाल/टांटिया/कोठारी

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धारीवाल/धाडीवाल/टांटिया/कोठारी आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र की उत्पत्ति खींची राजपूतों से हुई है। गुजरात के पाटण नगर में उरमी वंश के श्री डेडूजी नामक राजपूत रहते थे। आजीविका चलाने के लिये व्यापार , कृषि आदि जो कार्य उन्होंने किये , सबमें घाटा प्राप्त हुआ। जीवन-सम्पादन हेतु उसने धाडे मारने का अर्थात् लूंट का धंधा अपना लिया। पूरे क्षेत्र में उसकी बहुत धाक हो गई। लोग उस रास्ते से जाने में डरते थे। एक बार उहड खींची राजपूत अपनी लडकी का डोला लेकर अर्थात् लडकी को शादी हेतु डोली में बिठाकर सिसोदिया राणा रणधीर के पास ले जा रहा था। डेडूजी रास्ते में मिल गये। खजाना तो लूंटा ही , कन्या बदनकंवर को भी अपने घर ले आया। उसके साथ विवाह कर लिया। जंगल में ही विहार करते हुए एक बार उसे खरतरगच्छ के आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरीश्वरजी म-सा- के दर्शन हुए। उनसे धर्म का श्रवण किया। उसका हृदय बहुत प्रभावित हुआ। आचार्य भगवंत ने उसे नवकार महामंत्र सुनाकर लूंट का त्याग करने का उपदेश दिया। डेडूजी विचार में पड गये। आचार्य महाराज का वासक्षेप लेकर वहॉं से प्रस्थान

BHANSALI GOTRA HISTORY भंसाली गोत्र का इतिहास

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भंसाली गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज भण्डसालिक/भण्डसाली/भणसाली/भंसाली एक ही गोत्र है। इस गोत्र की स्थापना के संबंध में दो मत प्राप्त होते हैं। एक मत के अनुसार इस गोत्र की स्थापना खरतरबिरूद प्राप्त कर्त्ता आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा हुई , जबकि दूसरे मत के अनुसार इस गोत्र के स्थापक प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि थे। भणसाली गोत्र के इतिहास का बोध प्राप्त करने के लिये हमें पश्चिमी राजस्थान के लौद्रवपुर की यात्र करनी होगी। तब लौद्रवपुर उस क्षेत्र की राजधानी थी। विराट् नगर था। लोदू जाति के क्षत्रियों का शासन चलता था। 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में भाटी देवराज ने लोदू क्षत्रियों को परास्त कर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। 11वीं शताब्दी में इस राज्य पर सागर नामक राजा राज्य करते थे। उनके 11 पुत्र थे , उनमें से 8 पुत्र मृगी रोग के शिकार होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गये। इस कारण राजा समेत पूरा राज परिवार चिंता में पड गया। विहार करते हुए आचार्य भगवंत श्री जिनेश्वरसूरि जब लौद्रवपुर पधारे , तो राज परिवार उनके दर्शनार्थ पहुँचा। धर

LUNKAD GOTRA HISTORY लूंकड गोत्र का इतिहास

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लूंकड गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज लूंकड गोत्र की उत्पत्ति सोलंकी राजपूतों से हुई है। ओसवंश अनुसंधान के आलोक में , ओसवालों की अमरबेल आदि गोत्रें से संबंधित इतिहास ग्रंथों में इस गोत्र से संबंधित संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध होती है। मथुरा पर राजा नरवाहन सोलंकी राज्य करते थे। मिथ्यात्व से परिपूर्ण उनका जीवन था। जीवहिंसा में वे लगातार लिप्त रहा करते थे। ऐसे समय में उस नगर में जैन धर्म के प्रखर आचार्य भगवंत का वहाँ पर पदार्पण हुआ। महामंत्री जो जिन धर्म के अनुयायी थे , के निवेदन पर एक बार राजा नरवाहन उनके दर्शन हेतु उपाश्रय में पहुँचा। गुरु भगवंत की देशना श्रवण कर उसका मन प्रमुदित हुआ। वह प्रतिदिन आकर आचार्य भगवंत की उपासना करने लगा। धीरे धीरे गुरु भगवंत की देशना उसके हृदय में रमण करने लगी। वह अहिंसा धर्म के प्रति आकृष्ट हो गया। कुछ समय बाद उसने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया। उसके त्याग को देख नगरवासी भी हिंसा का त्याग कर अहिंसा के प्रति अनुरक्त हो उठे। आचार्य भगवंत ने एक दिन शुभ मुहूर्त्त में राज परिवार व उनके साथ बडी संख्या में लो

BOTHRA GOTRA HISTORY बोथरा गोत्र का इतिहास

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बोथरा गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज इस गोत्र का इतिहास देवलवाडा से प्रारंभ होता है। देवलवाडा पर चौहान वंश के भीमसिंह का राज्य था। इतिहास के अनुसार वह 144 गांवों का अधिपति था। उसकी एकाकी पुत्री जालोर के राजा लाखणसिंह को ब्याही गई थी। वह ससुराल में पारस्परिक द्वन्द्व के कारण अपने पुत्र सागर को लेकर पीहर आ गई थी। भीमसिंह ने अपना राज्य दोहित्र सागर को सौंप दिया। सागर के चार पुत्र थे- बोहित्थ , माधोदेव , धनदेव और हरीजी! इतिहास की अन्य पुस्तक में तीन पुत्रें का लिखा है। सागर राजा की मृत्यु के बाद बडे पुत्र बोहित्थ ने देवलवाडा राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। वह धर्मपरायण राजा था। विहार करते हुए प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि वि. सं. 1197 में देवलवाडा पधारे। गुरुदेव की दिव्य साधना का वर्णन जब राजा बोहित्थ के कानों से टकराया तो वह उनके दर्शन करने के लिये उत्सुक हो उठा। वह दूसरे ही दिन सपरिवार गुरुदेव के दर्शनार्थ पहुँचा। पहले प्रवचन से ही वह अत्यन्त प्रभावित हो उठा। वह प्रतिदिन प्रवचन श्रवण करने आने लगा। मन में पैदा हो रही जिज्ञास

KANKRIYA GOTRA HISTORY कांकरिया गोत्र का इतिहास

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कांकरिया गोत्र का इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज कांकरिया गोत्र का उद्भव नवांगी वृत्तिकार खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म- के पट्टधर आचार्य जिनवल्लभसूरि के उपदेश से हुआ है। वि. सं. 1142 का यह घटनाक्रम है। चित्तौड नगर के महाराणा के राजदरबार में भीमसिंह नामक सामंत पदवीधारी था। वह पडिहार राजपूत खेमटराव का पुत्र था। वह कांकरावत का निवासी था। उसे महाराणा की चाकरी करना पसंद न था। एक बार राजदरबार में किसी कारणवश सामंत भीमसिंह आक्रोश में आ गये। उनका स्वाभिमान जागा और वे अपने गांव चले गये। महाराणा को यह उचित नहीं लगा। तुरंत सेवा में चले आने का हुकम जारी किया। पर सामंत भीमसिंह ने वहॉं जाना स्वीकार नहीं किया। इस पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर महाराणा से विशाल सेना भेजी और आदेश दिया कि सामंत भीमसिंह को कैसे भी करके बंदी बना कर मेरी सेवा में उपस्थित किया जाय। गुप्तचरों से सेना के आगमन के समाचार ज्ञात कर भीमसिंह भयभीत हो उठा। अब मेरी रक्षा कौन करेगा! इस चिंता में उसे अनुचरों ने बताया कि अपने गांव में पिछले दो तीन दिनों से आचार्य जिनवल्लभसूरि

CHHAJED GOTRA HITORY छाजेड गोत्र का गौरवशाली इतिहास

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छाजेड गोत्र का गौरवशाली इतिहास आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज वि. सं. 1215 की यह घटना है। सवियाणा गढ जो वर्तमान में गढ़सिवाना के नाम से प्रसिद्ध है , में राठौड वंश के काजलसिंह रहते थे। वे रामदेवसिंह के पुत्र थे। प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी म-सा- विहार करते हुए सवियाणा में पधारे। उनके त्याग , तप , विद्वत्ता , साधना की महिमा श्रवण कर काजलसिंह का मन उनके प्रति आकृष्ट हो गया। उनका धर्मोपदेश श्रवण करने के लिये वह प्रतिदिन उपाश्रय में जाने लगा। किसी जैन मुनि के प्रवचन श्रवण करने का यह उसका प्रथम अवसर था। उसका मन धर्म में अनुरक्त हो गया। उसने एक बार गुरुदेवश्री के प्रवचन में स्वर्णसिद्धि की बात सुनी। इस पर उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने गुरुदेव से पूछा- क्या स्वर्णसिद्धि हो सकती है! गुरुदेव ने कहा- साधना से सब कुछ हो सकता है। चित्त की एकाग्रता के साथ यदि ध्यान साधना की जाये तो सब कुछ संभव है। उसने कहा- गुरुदेव! मैं चमत्कार देखना चाहता हूँ। आप तो महान् साधक हैं। कोई चमत्कार बताईये। गुरुदेव ने क