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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

BHANSALI GOTRA HISTORY भंसाली गोत्र का इतिहास

भंसाली गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज

भण्डसालिक/भण्डसाली/भणसाली/भंसाली एक ही गोत्र है। इस गोत्र की स्थापना के संबंध में दो मत प्राप्त होते हैं। एक मत के अनुसार इस गोत्र की स्थापना खरतरबिरूद प्राप्त कर्त्ता आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा हुई, जबकि दूसरे मत के अनुसार इस गोत्र के स्थापक प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि थे।
भणसाली गोत्र के इतिहास का बोध प्राप्त करने के लिये हमें पश्चिमी राजस्थान के लौद्रवपुर की यात्र करनी होगी। तब लौद्रवपुर उस क्षेत्र की राजधानी थी। विराट् नगर था। लोदू जाति के क्षत्रियों का शासन चलता था। 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में भाटी देवराज ने लोदू क्षत्रियों को परास्त कर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। 11वीं शताब्दी में इस राज्य पर सागर नामक राजा राज्य करते थे। उनके 11 पुत्र थे, उनमें से 8 पुत्र मृगी रोग के शिकार होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गये। इस कारण राजा समेत पूरा राज परिवार चिंता में पड गया।
विहार करते हुए आचार्य भगवंत श्री जिनेश्वरसूरि जब लौद्रवपुर पधारे, तो राज परिवार उनके दर्शनार्थ पहुँचा। धर्मदेशना सुनने के बाद अपनी चिंता को स्वर देते हुए राजा ने पूज्य आचार्यश्री से निवेदन किया- भगवन! आप त्यागी और चमत्कारी महापुरूष है। आपके चेहरे पर जो तेज छाया हुआ है, वह आपकी प्रचण्ड प्रतिभा और वचनसिद्धि का परिचायक है। हे प्रभो! मेरे 11 पुत्र थे। 8 मृत्यु को प्राप्त हो गये। शेष बचे इन तीन पुत्रें के लिये मैं बहुत चिन्तित हूँ। रात दिन मुझे यह चिंता सताती है कि कहीं ये तीनों पुत्र भी कालकवलित न हो जाये। आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि ये तीनों पुत्र जीवित रहें।
आपसे देशना का अमृत प्राप्त कर हम धन्यभागी हुए हैं। सच्चे धर्म का बोध हुआ है। आपको ही गुरु के रूप में मैं और पूरा परिवार स्वीकार करते हैं। आप हम पर कृपा बरसायें!

उनकी प्रार्थना सुनकर आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि ने उन्हें सम्यक्त्व प्रदान करते हुए आदेश दिया कि एक पुत्र को राजा बनाओ। बाकी दोनों पुत्रें को श्रावक बनाओ।
राजा ने उनके आदेश को शिरोधार्य किया। पूज्य आचार्यश्री ने वहीं उस भंडार की साल में पट्ट पर बिराजमान होकर श्रीधर और राजधर नामक दोनों राजपुत्रें के सिर पर वासचूर्ण डाल कर श्रावकत्व की दीक्षा प्रदान की।
वासचूर्ण भंडार की साल में डालने के कारण उन दोनों राजपुत्रें की परम्परा को भण्डसाली गोत्र पूज्य आचार्यश्री ने प्रदान किया।
बीकानेर निवासी उपाध्याय श्री जयचन्द्र गणि के संग्रह में एक प्राचीन हस्तलिखित प्रपत्र है, जिसमें भणसाली गोत्र के इतिहास का वर्णन अंकित है। उसके अनुसार आचार्य जिनेश्वरसूरि ने इस गोत्र की स्थापना की। उक्त कथानक इस प्रपत्र में अंकित है। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के ग्रन्थ भंडार में उपलब्ध एक हस्तलिखित ग्रंथ व नाहर ग्रंथागार में उपलब्ध एक हस्तलिखित ग्रन्थ में उक्त इतिहास का उल्लेख प्राप्त होता है। लौद्रवपुर मंदिर में 17वीं शताब्दी के उत्कीर्णित शतदल पद्म यंत्र से भी इस कथानक की पुष्टि होती है। इन प्रमाणों के आधार पर वि.सं. 1091 में इस गोत्र की स्थापना हुई थी।
भाटों और कुलगुरूओं की बहियों के अनुसार यह गोत्र यादव कुल के भाटी राजपूतों से वि. सं. 1196 में स्थापित हुआ है। इस इतिहास के अनुसार वि. 1196 में लौद्रवपुर में भाटी सगर नामक राजा राज्य करते थे। उनके तीन पुत्र थे। कुलधर, श्रीधर व राजधर! दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि विहार करते हुए लौद्रवपुर पधारे। उनका सानिध्य प्राप्त कर राजा प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। राजा ने सपरिवार जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण करते हुए श्रावकत्व स्वीकार कर लिया।
दादा गुरुदेव भंडार की साल में बिराजमान थे। वहीं पर राजपरिवार को वासचूर्ण डालकर उन्हें जैनधर्म में दीक्षित किया। भंडार की साल में वासक्षेप करने के परिणाम स्वरूप उन्हें भण्डसाली गोत्र प्रदान किया गया। दादा गुरुदेव से प्रेरणा प्राप्त कर श्रीधर व राजधर के पुत्रें ने वहाँ पार्श्वनाथ परमात्मा का भव्य जिनमंदिर बनवाया।
भणसाली गोत्र के इतिहास के संदर्भ में एक और कथा भी उपलब्ध होती है। जोधपुर के श्री मुनिसुव्रतस्वामी जैन मंदिर के तलघर में संरक्षित हस्तलिखित ज्ञान भंडार में एक प्राचीन पत्र उपलब्ध है, जिसमें भंसाली गोत्र के इतिहास का विस्तार से वर्णन किया है।
इस प्रपत्र के अनुसार भणसोल नामक नगर पर भाटी भादोजी राज करते थे। जब उस नगर पर यवनों का आक्रमण हुआ तो उससे उबरने के लिये दादा गुरुदेवश्री जिनदत्तसूरि की सेवा में पहुँचे। दादा गुरुदेव ने उनकी प्रार्थना सुनकर अपने साधना बल से पूरे राज्य को सुरक्षित कर लिया। परिणामस्वरूप प्रभावित होकर तथा उनकी देशना से धर्म के शुद्ध स्वरूप का बोध प्राप्त कर राजा ने व उनके भाई रिडमलजी ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया। तथा राजा के सुपुत्र हरिकिशन ने संयम ग्रहण कर लिया। भणसोल नगरी के हिसाब से गुरुदेव ने उन्हें भणसाली गोत्र प्रदान किया।
इस प्रपत्र में भादोजी के वंशजों का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है कि भादोजी के वंशज कोटडे, राजा री ढाणी, उमरकाट, मेवानगर, खारीवावर-कच्छ, जोधपुर, समदडी, बालोतरा, मंडोर, करमावास, गुडा, जैतारण, दुंदाडे, दइकडा, जालोर, गुडा, अहमदाबाद आदि नगरों में जाकर बस गये।
महाजन वंश मुक्तावली में भंसाली गोत्र की उत्पत्ति के विषय में एक अलग कथानक प्राप्त होता है। उस कथानक के अनुसार लौद्रवपुर के राजा धीराजी भाटी की धर्मपत्नी रानी को ब्रह्म राक्षस लग गया था। उस ब्रह्मराक्षस के कारण कभी तो वह भूखी ही रहती। और कभी खाने बैठती तो सौ आदमियों का भोजन वह अकेली कर जाती। राजा चिंता में पड गया। बहुत से मंत्रवादियों को बुलाया। मंत्रवादी मंत्र पढना शुरू कर देते कि वह रानी खुद ही सारा मंत्र बोल जाती। मंत्रवादियों की चिकित्सा काम नहीं आई।
उस समय दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का लौद्रवपुर पधारना हुआ। उनकी यशोगाथाऐं राजा के कानों में पडी। वह आशा लेकर गुरुदेव के दरबार में पहुँचा।
दादा गुरुदेव ने सूरिमंत्र आदि विशिष्ट मंत्रें से अभिमंत्रित वासक्षेप उस रानी के सिर पर डाला। ब्रह्म राक्षस बोल उठा- गुरुदेव! मुझे क्षमा करो। मैं आज से आपका दासानुदास हूँ।
गुरूदेव ने कहा- आज के बाद कभी भी इस परिवार को सताने की कोशिष मत करना।
ब्रह्मराक्षस बोला- हे गुरुदेव! मैं पूर्व भव में इसी राजा का कथावाचक था। धर्म की कथाऐं इन्हें सुनाता था। किसी पर्व के दिन मैंने धर्म कथा सुनाते हुए राजा से कहा- हे राजन्! जगदम्बा माता है। इन्हें मांस मदिरा चढाना उचित नहीं है। माता तो वात्सल्य देने वाली होती है। वह अपने पुत्रें की हिंसा नहीं करती। अतः बलिविधान करना अधर्म है।
मेरी बात सुनकर राजा ने क्रोध में आकर मुझे मृत्यु दण्ड दे दिया। मैं व्यंतर निकाय में देव बना। पूर्व भव के वैर वश इनके कुल का नाश करने की इच्छा से इन्हें सता रहा था।
हे राजन्! मेरी बात मानना। यदि तुम अपना भविष्य उज्ज्वल चाहते हो तो दादा जिनदत्तसूरि जैसे महान् आचार्य की शरण ले लेना। ब्रह्म राक्षस रानी के शरीर का त्याग कर अपनी निकाय में चला गया। जाते जाते चमत्कार दिखाने के लिये गढ़ (किले) का दरवाजा जो उत्तर में था, उसे पूर्व में कर दिया।
राज परिवार गुरुदेव से अत्यन्त प्रभावित हुआ। धर्म का शुद्ध स्वरूप समझा और वासक्षेप ग्रहण कर जैन धर्म अंगीकार किया। भंडसाल में वासक्षेप करने के परिणाम स्वरूप भणसाली गोत्र स्थापित हुआ।
अलग अलग प्राप्त कथाओं में कुछ तथ्य एक समान है। 1- भाटी धीरोजी से यह गोत्र चला। 2- लौद्रवपुर में इस गोत्र की स्थापना हुई। 3- भंडसाल में वासक्षेप करने के कारण भण्डसाली गोत्र स्थापित हुआ।
अब प्रश्न है कि इस गोत्र के स्थापक आचार्य जिनेश्वरसूरि हैं या जिनदत्तसूरि!
चिंतन करने से ऐसा ज्ञात होता है कि आचार्य जिनेश्वरसूरि ने इस गोत्र की स्थापना की थी। काल के प्रभाव से परिवार जनों में पुनः मिथ्यात्व का प्रवेश होते देख कर दादा जिनदत्तसूरि ने इस गोत्र का पुनरूद्धार किया।
इस भंसाली गोत्र में श्रीधरजी की 18/19वीं पीढी के श्रावक थाहरू शाह बहुत प्रतापी श्रावक हुए। श्रीधरजी ने लौद्रवपुर में पार्श्वनाथ परमात्मा का जिनमंदिर निर्मित किया था, जिसे बाद में मुहम्मद अलाउद्दीन खिलजी ने तोड दिया था। थाहरूशाह भंसाली ने उस मंदिर का पुनरूद्धार कराया। वि. सं. 1675 में इस मंदिर की प्रतिष्ठा खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनराजसूरिजी म- से करवाई। लौद्रवपुर तीर्थ की अद्भुत वास्तुकला, अनूठा स्थापत्य हर यात्री को प्रभावित करता है। श्री थाहरूशाह ने जैसलमेर व आगरा में जिन मंदिर बनवाये। जैसलमेर में उपाश्रय का निर्माण भी करवाया। ज्ञान भंडार की स्थापना की। नये ग्रन्थ लिखवाये। कितने ही ग्रन्थ स्वर्णाक्षरों में लिखवाये।
श्री थाहरूशाह ने आचार्य जिनराजसूरि की पावन निश्रा में वि. 1682 में सिद्धाचलजी का विशाल संघ निकाला। उस संघ में जिस रथ में परमात्मा को बिराजमान करके सिद्धाचल पधारे थे, वह रथ आज भी लौद्रवाजी तीर्थ में सुरक्षित है। इसी संघ में महोपाध्याय श्री समयसुन्दरजी महाराज ने शत्रुंजय रास की रचना की थी।
श्री सिद्धाचल की पावन भूमि पर खरतरवसही में उन्होंने आचार्य जिनराजसूरि के करकमलों से चौबीस तीर्थंकर परमात्मा के 1452 गणधरों की पादुकाओं की प्रतिष्ठा वि. सं. 1682 ज्येष्ठ वदि 10 को संपन्न करवाई।
चंडालिया, भूरा, बद्धाणी, चील मेहता ये सभी भंसाली गोत्र की ही शाखाऐं हैं।

भंसाली गोत्र की शाखाऐं
चील मेहता, भूरा, बद्धाणी, चंडालिया, कच्छवाहे, सोलंकी, मेहता, चौधरी आदि शाखाऐं भंसाली गोत्र की हैं।
भंसाली वंश परम्परा में भूराजी नामक श्रावक हुए। उनसे भूरा शाखा निकली। पूगल गांव में बसने के कारण वहॉं के भंसाली पुगलिया कहलाते हैं। थीहरूशाह को अकबर ने राय पद प्रदान किया था। उनकी वंश परम्परा राय भणसाली कहलाई। इन्हीं राय भणसाली से चंडालिया व बद्धाणी शाखा निकली।
थीहरूशाह के वंशजों को वहॉं के नरेश ने कच्छवाहे की उपाधि दी थी। कई भंसाली परिवार कच्छवाहे भंसाली का प्रयोग करते हैं।
भंसाली परिवार के ही पुण्यपाल को चित्तौड के राणा हमीरसिंहजी ने मुहता बिरूद दिया था। इसलिये इनके परिवार मुहता/मेहता भंसाली कहलाये।
चौधरी का काम करने से जोधपुर, जालोर आदि क्षेत्रें के भंसाली परिवार चौधरी अटक लगाते हैं।
चील मेहता भी भंसाली है। उनका कथन है कि इस गोत्र की स्थापना खरतरगच्छाचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज ने की है। आभूगढ में राजा सोलंकी आभडदे राज करता था। उसने सात विवाह किये थे। पर किसी से उत्पन्न संतान जीवित नहीं रहती थी। उसने बहुतेरे उपाय किये। कई मंत्र तंत्र करवाये। देवी देवता मनाये पर उसकी समस्या का समाधान नहीं हुआ।
विहार करते हुए आचार्य जिनवल्लभसूरि आभूगढ पधारे। राजा ने उनके दर्शन कर अपनी समस्या निवेदित की। आचार्य भगवंत ने फरमाया- यदि तुम शिकार आदि का सर्वथा त्याग करते हो... जैन धर्म को अंगीकार करते हो... तो तुम्हारी समस्या का समाधान हो जायेगा।
राजा और उनके पूरे परिवार ने गुरु भगवंत के आदेश को शिरोधार्य करते हुए जैनत्व स्वीकार किया। आचार्य भगवंत ने उनके सिर पर वासचूर्ण डाल कर श्रावकत्व प्रदान किया। राजा के सातों रानियों से सात पुत्र हुए। सभी जीवित रहे। भंडसाल में वासक्षेप डालने के कारण भणसाली गोत्र स्थापित हुआ।
दादा जिनदत्तसूरि के जीवन-वृत्त में भंसाली गोत्र से संबंधित एक घटना का उल्लेख प्राप्त होता है। दादा जिनदत्तसूरि विहार करते हुए अणहिलपुर पट्टन पधारे थे। अंबड नामक एक श्रावक जो खरतरगच्छ का द्वेषी था, उसने आचार्य भगवंत के शिष्य को जहर मिश्रित मिश्री का जल वहोराया। गुरु महाराज ने उस विषमिश्रित जल को गहण कर लिया। ग्रहण करते ही वे यह जान गये कि यह जल तो जहर से भरा हुआ था।
उस समय एक भणसाली गोत्र का श्रावक वहीं उपाश्रय में था। ज्योंहि उसे इस घटना का पता चला तो वह श्रावक भूखा प्यासा, सारे काम छोड कर एक ऊॅंट पर चढकर समीपस्थ शहर में जहॉं एक व्यक्ति के पास विषापहारिणी मुद्रिका थी, पहुँचा। और मुद्रिका लेकर दौडता आया उपाश्रय आया। उस मुद्रिका को प्रासुक पानी में डूबोकर वह जल गुरुदेवश्री को दिया गया... जहर दूर हो गया।
पर कुछ ही समय में यह बात पूरे शहर में फैल गई।
राजा को ज्योंहि इस घटना का पता चला तो उसने अम्बड को राजदरबार में बुलाया। राजा ने उसे चौरंगा करने का आदेश दिया। गुरुदेव ने करूणा करके अपने शिष्यों को राजा के पास भेजा और आज्ञा रद्द करवाई।
पूरे शहर में अम्बड हत्यारे के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कुछ समय बाद वह काल धर्म को प्राप्त हो गया। मर कर व्यन्तर बना। गुरुदेव और भंसाली परिवार पर लगातार उपद्रव करने लगा। गुरुदेव की रक्षा के लिये भंसाली परिवार अपना बलिदान देने के लिये सहर्ष तत्पर हो उठा।
गुरुदेव ने अपने साधना-बल से उस व्यन्तर को स्तंभित कर दिया। भंसाली परिवार पर गुरुदेव ने रजोहरण फेरा। भंसाली परिवार की सुरक्षा हुई। भंसाली परिवार की इस गुरु-भक्ति पर लोगों ने कहा- तुम खरे भक्त हो! वे खर भंसाली कहलाने लगे।
इस वंश में जालसी मेहता नामक बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति हुए। उन्होंने जालोर के शासक मालदेव का पूर्ण विश्वास प्राप्त किया था। अलाउद्दीन ने चित्तौड पर कब्जा कर लिया। महाराणा हमीर को पुनः चित्तौड प्राप्त करने में जालसी मेहता का बहुत योगदान प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप राणा हमीर ने जालसी मेहता को बडी जागीर प्रदान की। जालसी मेहता भंसाली गोत्र के थे।
इन्हीं की वंश परम्परा में 17वीं शताब्दी में चीलजी हुए। वे बडे राजमान्य व्यक्तित्व थे। उनके वंशज चील मेहता लगाने लगे।
इसी वंश परम्परा में भूराजी हुए। उनसे भूरा शाखा निकली। पूगल गांव में बसने के कारण वहॉं के भंसाली पुगलिया कहलाते हैं। थीहरूशाह को अकबर ने राय पद प्रदान किया था। उनकी वंश परम्परा राय भणसाली कहलाई। इन्हीं राय भणसाली से चंडालिया व बद्धाणी शाखा निकली।
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