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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

SUCHANTI SANCHETI GOTRA HISTORY सुचन्ती/संचेती गोत्र का इतिहास

सुचन्ती/संचेती गोत्र का इतिहास

इस गोत्र की स्थापना वि. सं. 1026 या 1076 में हुई है। खरतरबिरूद प्राप्त करके आचार्य जिनेश्वरसूरि अपने गुरुदेव आचार्य श्री वर्धमानसूरि व अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए योगिनीपुर दिल्ली पधारे। वहाँ सोनीगरा चौहान वंश का राज्य था। राजा लखमण के तीन पुत्र थे- बोहित्थ, लवण व जोधा!
ज्येष्ठ पुत्र बोहित्थकुमार बगीचे में घूम रहा था। उसे वहाँ एक जहरीले सर्प ने काट लिया।
राजकुमार बेहोश हो गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे होश नहीं आया। वैद्यों ने उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी। राजा शोकाकुल हो गया। प्रजा में भी पीडा का वातावरण फैल गया।
राजकुमार को श्मशान घाट ले जाया गया। रास्ते में ही उपाश्रय था, जहाँ आचार्य वर्धमानसूरि, आचार्य जिनेश्वरसूरि पांचसौ मुनियों के साथ रूके हुए थे।
आचार्य भगवंत को देख राजा रूदन कर उठा। आचार्य भगवंत के पास जाकर अपने पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना करने लगा।
आचार्य भगवंत ने भविष्य की उज्ज्वलता व धर्म के विशिष्ट लाभ होते देख बोहित्थकुमार को पास बुलाया। उसकी देह देख कर ही ज्ञानी गुरु भगवंत समझ गये कि यह सर्प-विष के कारण बेहोश हुआ है, मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है।
आचार्य भगवंत ने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया। अभिमंत्रित वासचूर्ण डाला। अपने अमृत दृष्टि-पात से उसे सचेत कर दिया। कुमार की बेहोशी टूटी। वह पल भर में उठ बैठा।
राजा का पूरा परिवार आचार्य भगवंत की जय जयकार करने लगा। आचार्य भगवंत ने उपदेश का अमृत प्रवाहित किया। प्रतिबोध पाकर पूरे परिवार ने व्यसनों का त्याग करते हुए जैन धर्म स्वीकार कर लिया।
आचार्य भगवंत ने उनके सिर पर वासक्षेप डाल कर जैन धर्म में दीक्षित किया। सचेत करने के कारण संचेती गोत्र प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने उन्हें ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। अपभ्रंश हो जाने से कहीं कहीं सुचन्ती/सुजन्ती/संचेती या सचेती लिखते हैं। महाजन वंश मुक्तावली व जैन संप्रदाय शिक्षा नामक ग्रन्थ के अनुसार संचेती गोत्र की स्थापना आचार्य वर्धमान सूरि ने की थी। वस्तुतः आचार्य वर्धमानसूरि व आचार्य जिनेश्वरसूरि साथ ही थे। इसलिये भले सचेत करने व प्रतिबोध देने का कार्य आचार्य जिनेश्वरसूरि ने किया हो, पर आदेश तो उनके गुरु आचार्य वर्धमानसूरि का ही था। इस आधार पर इस गोत्र के स्थापक आचार्य वर्धमानसूरि कहलाते हैं। जोधपुर के केशरियानाथ मंदिर के ग्रन्थागार में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थ ओसवालों के गोत्रें की उत्पत्तिमें सोनीगरा चौहानों की वंशावली इस प्रकार दी है-
चहुआण राजा धूरम्-नहुष- मानधाता- पंडार- अमरसिंह- तामदेव- समरसिंह- धरणीधर- समधर- मानसिंह- समरसिंह- सोमदेव- सिवराज- सीहो- चावदेव- समरसी- धीरंधर- सूरजमल- राजदेव- चंड- प्रचंड- प्रतापसिंह- अभयदेव- महिन्द्रदेव- लखण- सहिस- लखमण- बोहित्थ, लवण, जोधा।
इस ग्रन्थ के अनुसार पाटण नरेश दुर्लभ नरेश की राजसभा में वाद जीतने के परिणाम स्वरूप खरतरबिरूदप्राप्त कर वहाँ से विहार कर आचार्य वर्धमानसूरि, आचार्य जिनेश्वरसूरि चण्डा गांव में पधारे। वहाँ बोहित्थ के पुत्र गुणदेव को सर्प ने काट लिया। तब आचार्य भगवंत ने उसे सचेत कर जैन धर्म में दीक्षित किया तथा परिवार को ओसवाल जाति में सम्मिलित करते हुए संचेती गोत्र प्रदान किया।

इस गोत्र की स्थापना वि. सं. 1026 या 1076 में हुई है। खरतरबिरूद प्राप्त करके आचार्य जिनेश्वरसूरि अपने गुरुदेव आचार्य श्री वर्धमानसूरि व अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए योगिनीपुर दिल्ली पधारे। वहाँ सोनीगरा चौहान वंश का राज्य था। राजा लखमण के तीन पुत्र थे- बोहित्थ, लवण व जोधा!
ज्येष्ठ पुत्र बोहित्थकुमार बगीचे में घूम रहा था। उसे वहाँ एक जहरीले सर्प ने काट लिया।
राजकुमार बेहोश हो गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे होश नहीं आया। वैद्यों ने उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी। राजा शोकाकुल हो गया। प्रजा में भी पीडा का वातावरण फैल गया।
राजकुमार को श्मशान घाट ले जाया गया। रास्ते में ही उपाश्रय था, जहाँ आचार्य वर्धमानसूरि, आचार्य जिनेश्वरसूरि पांचसौ मुनियों के साथ रूके हुए थे।
आचार्य भगवंत को देख राजा रूदन कर उठा। आचार्य भगवंत के पास जाकर अपने पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना करने लगा।
आचार्य भगवंत ने भविष्य की उज्ज्वलता व धर्म के विशिष्ट लाभ होते देख बोहित्थकुमार को पास बुलाया। उसकी देह देख कर ही ज्ञानी गुरु भगवंत समझ गये कि यह सर्प-विष के कारण बेहोश हुआ है, मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है।
आचार्य भगवंत ने संजीवनी विद्या का प्रयोग किया। अभिमंत्रित वासचूर्ण डाला। अपने अमृत दृष्टि-पात से उसे सचेत कर दिया। कुमार की बेहोशी टूटी। वह पल भर में उठ बैठा।
राजा का पूरा परिवार आचार्य भगवंत की जय जयकार करने लगा। आचार्य भगवंत ने उपदेश का अमृत प्रवाहित किया। प्रतिबोध पाकर पूरे परिवार ने व्यसनों का त्याग करते हुए जैन धर्म स्वीकार कर लिया।
आचार्य भगवंत ने उनके सिर पर वासक्षेप डाल कर जैन धर्म में दीक्षित किया। सचेत करने के कारण संचेती गोत्र प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने उन्हें ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। अपभ्रंश हो जाने से कहीं कहीं सुचन्ती/सुजन्ती/संचेती या सचेती लिखते हैं। महाजन वंश मुक्तावली व जैन संप्रदाय शिक्षा नामक ग्रन्थ के अनुसार संचेती गोत्र की स्थापना आचार्य वर्धमान सूरि ने की थी। वस्तुतः आचार्य वर्धमानसूरि व आचार्य जिनेश्वरसूरि साथ ही थे। इसलिये भले सचेत करने व प्रतिबोध देने का कार्य आचार्य जिनेश्वरसूरि ने किया हो, पर आदेश तो उनके गुरु आचार्य वर्धमानसूरि का ही था। इस आधार पर इस गोत्र के स्थापक आचार्य वर्धमानसूरि कहलाते हैं। जोधपुर के केशरियानाथ मंदिर के ग्रन्थागार में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थ ओसवालों के गोत्रें की उत्पत्तिमें सोनीगरा चौहानों की वंशावली इस प्रकार दी है-
चहुआण राजा धूरम्-नहुष- मानधाता- पंडार- अमरसिंह- तामदेव- समरसिंह- धरणीधर- समधर- मानसिंह- समरसिंह- सोमदेव- सिवराज- सीहो- चावदेव- समरसी- धीरंधर- सूरजमल- राजदेव- चंड- प्रचंड- प्रतापसिंह- अभयदेव- महिन्द्रदेव- लखण- सहिस- लखमण- बोहित्थ, लवण, जोधा।
इस ग्रन्थ के अनुसार पाटण नरेश दुर्लभ नरेश की राजसभा में वाद जीतने के परिणाम स्वरूप खरतरबिरूदप्राप्त कर वहाँ से विहार कर आचार्य वर्धमानसूरि, आचार्य जिनेश्वरसूरि चण्डा गांव में पधारे। वहाँ बोहित्थ के पुत्र गुणदेव को सर्प ने काट लिया। तब आचार्य भगवंत ने उसे सचेत कर जैन धर्म में दीक्षित किया तथा परिवार को ओसवाल जाति में सम्मिलित करते हुए संचेती गोत्र प्रदान किया।

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