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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

KUMARPAL BHAI V. SHAH

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KUMARPAL BHAI V. SHAH

रंगून में अभिषेक

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                                          रंगून में अभिषेक ब्रह्मदेश- म्यांमार देश की राजधानी रंगून {यंगून} के जिन मंदिर एवं दादावाडी का आवश्यक जीर्णोद्धार श्री जिनदत्त कुशलसूरि खरतरगच्छ पेढी के तत्वावधान में संपन्न हुआ। इस जीर्णोद्धार का संपूर्ण लाभ पेढी के अध्यक्ष व मान्यवर फलोदी चेन्नई निवासी श्रेष्ठिवर्य श्री मोहनचंदजी प्रदीपकुमारजी ढड्ढा परिवार द्वारा लिया गया। बिना उत्थापन के हुए इस जीर्णोद्धार के पश्चात् 21 जुलाई 2012 को अठारह अभिषेक का विधान संपन्न किया गया। अभिषेक के विधान हेतु समस्त औषधियां व आवश्यक सामग्री के साथ ढड्ढा परिवार रंगून पहुँचा। श्री नाकोडा ज्ञानशाला के प्राचार्य शासन रत्न श्री नरेन्द्रभाई कोरडिया ने सारा विधि विधान कराया। दादा गुरूदेव की पूजा पढाई गई। व मंदिर पर ध्वजा चढाई गई। इस विधि विधान हेतु श्री ढड्ढाजी, श्री राजेशजी गुलेच्छा चेन्नई व श्री नरेन्द्रजी कोरडिया 20 जुलाई को वायुयान से रंगून पहुँचे। रंगून के इस मंदिर का प्रारंभ जयपुर निवासी श्री किशनचंदजी पुंगलिया ने संवत् 1930 में किया था। उनका व्यापार बर्मा देश में फैला हुआ था। इस कारण व

30. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

30.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. करने और चाहने की क्रिया में बीतता है पूरा जीवन! कुछ हम करते हैं जगत में! कुछ हम चाहते हैं जगत से! हमारा अपना व्यवहार जगत के प्रति कैसा भी हो, पर हम जगत से सदा अच्छे व्यवहार की कामना में जीते हैं। दूसरों को अच्छा कहने में कंजूसी करने वाला व्यक्ति दूसरों से अपने लिये सदैव अच्छा कहलवाना चाहता है। यह हमारे सोच की तराजू है। इस तराजू में समतुला का अपना कोई अर्थ नहीं है। समतुला की डंडी स्वतंत्र भी नहीं है। न केवल इसके दोनों पलडे हमारे हाथ में होते हैं बल्कि समतुला की डंडी भी हमारे इशारों पर नाचती है। पलडों की सामग्री बराबर होने पर भी हम उसे बराबर रहने नहीं देते। हमारे स्वार्थ की अंगुली पलडों को दांये बांयें घुमाती रहती है। जिधर हमें अपना पक्ष नजर आता है, उधर घुमा देते हैं। हम देखते भी वैसे ही है! हम सोचते भी वैसे ही है! हम बोलते भी वैसे ही है! सच तो यह है कि सत्य से हमें लेना देना नहीं है। हमें अपनी सोच से लेना देना है। हमें अपने स्वार्थ से लेना देना है। या यों कहें कि सत्य भी यदि हमारे स्वार्थ की फ्रेम में फिट होता है तो ठीक है। अन्

29. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

29.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. हमारा जीवन गलतियों का पिटारा है। सबसे बडी गलती है गलतफहमी में डूबना और उस आधार पर अपनी सोच का निर्माण करना। गलतियों से हम जितने परेशान नहीं है, गलतफहमियाँ उससे कई गुणा हमारे जीवन को, हमारी सोच को नरक बना देती है। प्रश्न है कि गलतफहमी क्यों होती है? इस प्रश्न का समाधान हमारी सोच में छिपा है। गलतफहमी होने के कई कारण है। मुख्य कारण है- हमारा पूर्वाग्रह! हम पूर्वाग्रहों में जीते हैं और पूर्वाग्रहों से जीते हैं। ‘में ’ और ‘से ’ के बीच अन्तर है तो थोडा, मगर गहरा है। ‘में ’ वर्तमान की सूचना देता है और ‘से ’ अतीत की! और इस ‘में ’ और ‘से ’ से ही भविष्य का रास्ता निकलता है। क्योंकि एक बार पूर्वाग्रह बना नहीं कि फिर हारमाला शुरू हो जाती है। फिर रूकता नहीं है। एक गलतफहमी दूसरी को जन्म देती है, दूसरी तीसरी को, और इस प्रकार एक अन्तहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। पूर्वाग्रहग्रस्त होना हमारी कमजोर और अज्ञानभरी मानसिकता का परिणाम है। यह अनुमान है जो सच भी हो सकता है, जो गलत भी हो सकता है। पर हम उसे सच मान कर ही जीते हैं। फिर यह अनुमान हमा

28. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

28.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जो करता है, वह जरूरी नहीं है कि सही ही हो! वह गलती भी कर सकता है! गलती का अनुमान ‘करने ’ से पहले भी हो सकता है... और बाद में भी हो सकता है। स्वभावत: बाद में ही अधिक होता है, क्योंकि पहले पता चल जाय तो फिर गलती कर नहीं पाता। बाद में पता चलना भी बहुत हितकर होता है। वह बोध आगे के लिये आँख खोल देता है। हमें अपनी गलती का पता अपने से भी चल सकता है, और दूसरों से भी! अपनी गलती का अहसास अपने से होता है, वहाँ इतनी समस्या नहीं होती! पर जब हमें अपनी गलती का अहसास औरों से होता है, उन क्षणों को सहन कर पाना बहुत मुश्किल होता है। दूसरों की ओर अंगुलियाँ उठाना बहुत आसान होता है, पर अपनी ओर उठी अंगुलियों को झेल पाना निश्चित ही मुश्किल कार्य है। जुडे हुए हाथों की अपेक्षा उठी हुई अंगुलियाँ ज्यादा उपकारी होती है। क्योंकि जुडे हुए हाथ हमें असावधान बना सकते हैं, जबकि उठी हुई अंगुलियाँ हमें जागरूक करती है। ऐसा बार बार कहना कि मेरी गलती हो तो बताना, बहुत आसान है। पर जब कोई बताता है, तब चित्त को कषाय भावों से न भरते हुए उपकारक भावों से भरना बहुत मुश्

34 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

34 जटाशंकर   - उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म . सा . जटाशंकर ठग था। ठगी करके अपना गुजारा चलाता था। वह घी बेचने का काम करता था। एक दिन उसे रास्ते घटाशंकर मिल गया। जटाशंकर ने सोचा- मैं इसे पटा लूं और घी बेच दूं। उसे पता नहीं था कि घटाशंकर भी पहुँचा हुआ ठग है। वह भी यह विचार कर रहा था कि जटाशंकर को पटा कर इसे सोने की अंगूठी बेच दूं। जटाशंकर ने घटाशंकर से और घटाशंकर ने जटाशंकर से परिचय साधा। दोनों आपस में बात करने लगे। घटाशंकर ने पूछा- भैया! क्या हाल चाल है? जटाशंकर ने जवाब दिया- बहुत मुश्किल काम हो रहा है। जब से डालडा लोग खाने लगे हैं, असली घी को तो कोई पूछता ही नहीं है। मैं सुबह से घूम रहा हूँ गाय का घी लेकर... पर कोई खरीददार नहीं मिला। देखो, कितना सुगंधदार, शानदार, दानेदार घी है! यों कहकर थोडा-सा घी घटाशंकर की अंगुली पर धरा। घटाशंकर बोला- मेरा भी यही हाल है। मैं सोने के आभूषण बेचता हूँ! पर सत्यानाश हो इन नकली आभूषणों का! जब से नकली आभूषण बाजार में आये हैं, लोग वही पहनने लगे हैं। असली सोने के आभूषणों को कोई हाथ भी नहीं लगाता। देखो, कितना सुन्दर यह आभूषण है। यह कहकर उसे सोने की अंगू

33. जटाशंकर उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

33. जटाशंकर  उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.  जटाशंकर पढाई कर रहा था। पढाई में मन उसका और बच्चों की भाँति कम ही लगता था। पिताजी बहुत परेशान रहते थे। बहुत बार डाँटते भी थे। पर वांछित परिणाम आया नहीं था। वह बहाना बनाने में होशियार था। आखिर पिताजी ने तय कर लिया कि वे अब उसे डांटेंगे नहीं, बल्कि प्रेम से समझायेंगे। उन्होंने अपने बच्चे को अपने पास बिठाकर तरह तरह से समझाया कि बेटा! यही उम्र है पढाई की! मूर्ख व्यक्ति की कोई कीमत नहीं होती। दूसरे दिन उन्होंने देखा कि बेटा पढ तो रहा है। पर कमर पर उसने रस्सी बांध रखी है। यह देखकर पिताजी बडे हैरान हुए। उन्होंने पूछा- जटाशंकर! यह तुमने रस्सी क्यों बाँध रखी है? -अरे पिताजी! यह तो मैं आपकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। -अरे! मैंने कब कहा था कि रस्सी बांधनी चाहिये! -वाह पिताजी! कल ही आपने मुझे कहा था कि बेटा! अब खेलकूद की बात छोड और कमर कस कर पढाई कर! सो पिताजी कमर कसने के लिये रस्सी तो बांधनी पडेगी न! पिताजी ने अपना माथा पीट लिया। शब्द वही है, पर समझ तो हमारी अपनी ही काम आती है। कहा कुछ जाता है, समझा कुछ जाता है, किया कुछ जाता है!

पूज्य आचार्य श्री जिन कांतिसागरसूरीजी म. सा. की वाणी

पूज्य आचार्य श्री जिन कांतिसागरसूरीजी  म. सा. की   वाणी  पूज्य आचार्य श्री जिन कांतिसागरसूरीजी  म. सा. की   वाणी    पूज्य आचार्य श्री जिन कांतिसागरसूरीजी  म. सा. की  वाणी   

32 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

32 जटाशंकर       - उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म . सा . जटाशंकर सेना में ड्राइवर था। घुमावदार पहाड़ी रास्ते में एक दिन वह ट्रक चला रहा था कि उसकी गाड़ी खाई में गिर पडी। वह तो किसी तरह कूद कर बच गया परन्तु गाडी में रखा सारा सामान जल कर नष्ट हो गया। सेना ने जब इस घटना की जाँच की तो सबसे पहले जटाशंकर से पूछा गया कि तुम सारी स्थिति का वर्णन करो कि यह दुर्घटना कैसे हुई। जटाशंकर हाथ जोड कर कहने लगा- अजी! मैं गाड़ी चला रहा था। रास्ते में मोड बहुत थे। गाड़ी को पहले दांये मोडा कि बांये हाथ को मोड आ गया। मैंने गाडी को फिर बांये मोडा। फिर दांये मोड आ गया। मैंने दांयी ओर गाडी को काटा। कि फिर बांयी ओर मोड आ गया, मैंने फिर गाडी को बांयी ओर मोडा। दांये मोड, फिर बांये मोड, फिर दांये मोड, फिर बांये मोड, ऐसे दांये से बांये और बांये से दांये मोड आते गये, मैं गाडी को मोडता रहा! मैं गाडी को मोडता रहा और मोड आते रहे। मोड आते रहे... मैं मोडता रहा! मैं मोडता रहा... मोड आते रहे। एक बार क्या हुआ जी कि मैंने तो गाडी को मोड दिया पर मोड आया ही नहीं! बस गाडी में  खड्ढे में जा गिरी! यह अचेतन मन की प्रक्रि

27. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

27.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. हिसाब किताब के दिन आ रहे हैं। यह समय लेखा जोखा करने का है। कितना कमाया.... कितना गँवाया....! कमाया तो क्या कमाया! और गँवाया तो क्या गँवाया! कमाने और गँवाने में मूल्यवान यदि वह है जो कमाया है, तो निश्चित ही हमने कुछ पाया है। और जो कमाया है, उसकी अपेक्षा जो गँवाया है, वह ज्यादा मूल्यवान है, तो निश्चित ही हम हार गये हैं। गत वर्ष की दीपावली के बाद आज इस दीपावली तक हमने एक साल जीया है। मैं एक साल बूढा हो गया हूँ। मेरी उम्र में एक साल का इज़ाफा हुआ है। आज मुझे इस साल भर की अपनी मेहनत का परिणाम सोचना है। साल भर में मैंने क्या किया? आज का दिन आगे की ओर मुँह करके आगे बढने का नहीं है। आज का दिन तो पीछे मुड कर अतीत में छलांग लगाने का है। अच्छी तरह अपने अतीत को टटोलना है। लेकिन अतीत को केवल देखना है। उसे पकड कर बैठ नहीं जाना है। उसे देखते रहने से क्या होगा? कितना ही अच्छा अतीत हो, उसमें जीया तो नहीं जा सकता। क्योंकि जीना तो वर्तमान में ही होता है। अच्छे अतीत को निहार कर वर्तमान में रोना नहीं है। आ सकता है रोना क्योंकि वर्तमान उतना अ

26. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

26. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. हमारे पास केवल ‘आज ’ है। ‘आज ’ ‘कल ’ नहीं है। और ‘आज ’ को ‘कल ’ होने में समय लगेगा। आज का उपयोग होने के बाद ‘आज ’ ‘कल ’ में बदल भी जायेगा तो कोई चिंता की बात नहीं होगी। पर उपयोग किये बिना ही ‘आज ’ यों ही यदि ‘कल ’ में बदल गया तो निश्चित ही हम अपने आपको क्षमा नहीं कर सकेंगे। यह तय है कि ‘आज ’ को कल में बदलने से रोका नहीं जा सकता। कोई नहीं रोक सकता। तीर्थंकर भी आज को ‘कल ’ में बदलने से रोक नहीं पाये थे। उन्होंने भी उसका उपयोग किया और सिद्ध हो गये। जो उपयोग करता है, बल्कि कहना चाहिये कि जो सम्यक् उपयोग करता है, वह सिद्ध हो जाता है। आज ही यथार्थ है। क्योंकि आज ही हमारे सामने है। कल का विचार किया जा सकता है... सोचा जा सकता है... उसमें डुबकी लगायी जा सकती है... पर उसमें जीया नहीं जा सकता। चाहे वह कल बीता हुआ कल हो, या आने वाला, हमारे जीने के लिये उसका महत्व उसके ‘आज ’ रहने पर या ‘आज ’ बनने पर ही था या होगा। हिन्दी भाषा का कल शब्द महत्वपूर्ण है। चाहे बीते दिन के लिये प्रयोग करना हो या आने वाले दिन के लिये.... दोनों के लिय

प्रार्थना

प्रार्थना प्रभु जी सुन लो मेरी विनती, याद हो जाये सारी गिनती. अक्षर सब हो जाये याद, समय न मेरा हो बर्बाद. अच्छे काम करूँ मैं जग में, यश फैले सारे ही नभ में. माता -पिता , गुरु का सम्मान, सारे जग में हो गुण -गान. करूँ देश का ऊँचा नाम, जीवन में मैं बनू महान.

Paryushan SMS | Michchhami Dukkadam SMS

Paryushan SMS | Michchhami Dukkadam SMS MAHA OFFER- Ab 2 se 12 sept. tak apko mil sakta hai apke har PAAPO se MUKTI pane ka CHANCE. Adhik Jaankari k liye apne najdiki "JAIN MANDIR" me sampark kare. Navkar jaisa mantra nahi,Vitrag jaise dev nahi ,Gautam jaise guru nahi,Ahinsa jaisa dharm nahi or PARYUSHAN jaisa parv nai Parushan parv ki shubhkamnaye. On this Holy Day of Mahaparva Parsyushan, May i Ask for Your Forgivness If Knowingly or Unknowingly i where Wrong On Our Deed, Word, or Action. MICHAMI DUKHDAM “MAA” Aa Lok Sudhare, “PARMATMAA” Par Lok Sudhare, “KSHAMA” Anant Kaal Sudhare MICHCHHAMI DUKKADAM paryushan ka aagman hai dharam dhyan ki rut hai dharam karo karm ko todo yahi sandesh duniya ko do "JEEO AUR JEENE DO" AHINSA PARMO DHARM" JAI JINENDRA................. kshama mukti marg ki seedi hai, Kshama hi ahinsha hai, Aparigrah hai, Kshama main apnatva hai, Samvedna hai, We take Few Seconds to hu

31. जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

31. जटाशंकर         - उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म . सा . मिस्टर जटाशंकर का व्यापार चल नहीं रहा था। कोई युक्ति समझ में आ नहीं रही थी। क्या करूँ कि मैं अतिशीघ्र करोड़पति बन जाऊँ! आखिर उसने अपना दिमाग लडाकर एक ठगी का कार्य करना प्रारंभ किया। बाबा का रूप धार लिया। बोलने में तो उस्ताद था ही। उसने स्वर्ग के टिकट बेचने प्रारंभ कर दिये। उसने वचन दिया सभी को कि जो भी इस टिकिट को खरीदेगा, उसे निश्चित रूप से स्वर्ग ही मिलेगा, भले उसने जिन्दगी में कितने ही पाप किये हों... न केवल पूर्व के किये गये पाप नष्ट हो जायेंगे बल्कि भविष्य में होने वाले पापों की सजा भी नहीं भुगतनी होगी। बस केवल एक टिकिट खरीदना होगा और मरते समय उसे यह टिकिट अपनी छाती पर रखना होगा। लोगों को तो आनंद आ गया। मात्र 5000 रूपये में स्वर्ग का रिजर्वेशन! और क्या चाहिये! फिर पाप करने की छूट! लोगों में तो टिकिट खरीदने के लिये अफरातफरी मच गई। हजारों टिकट बिक गये। बहुत बडी राशि एकत्र कर वह अपने आश्रम लौट रहा था। उसकी कार फर्राटे भरती हुई दौड रही थी। जटाशंकर अतिप्रसन्न था कि मेरा आइडिया कितना सफल रहा। रूपये उसने बडे बडे बैगों

25. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

25. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. सम्राट् ने साधु को संसारी बनाना चाहा है। उसने साधु बनने का कारण भी जानना चाहा है। ‘मैं अनाथ था, इसलिये साधु बन गया ’ इस कारण को जानकर वह प्रसन्न हुआ है, क्योंकि उसने भी इसी कारण का अनुमान किया था। अपने अनुमान को सही जानकर आनंदित हुआ है। वह दर्प से दपदपा उठा है। उसने अहंकार भरी हुंकार के साथ कहा है- आओ! मेरे साथ आओ, साधु! मैं तुम्हारा नाथ बनूँगा! साधु मुस्कुराया है। उसने आँखों में आँखें डालकर कहा है- जो खुद का नाथ नहीं है, वह किसी और का नाथ कैसे बन सकता है। तूं तो स्वयं अनाथ है, फिर मेरा नाथ कैसे बनेगा! और सम्राट् की आँखें लाल हो गई है। पर उसकी लाल आँखों पर साधु की निर्मल, पवित्र और स्थिर आँखें हावी हो गई है। उन आँखों में उसे रहस्य भरी गहराई नजर आई है। तेरा है क्या राजन्! और तो और, यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है। फिर क्यों तुम नाथ होने का ढोंग कर रहे हो! मेरे द्वारा दिये गये उत्तर में ‘अनाथ ’ शब्द का सही अर्थ तुम नहीं लगा पाये हो, राजन्! तुम अनाथ की जो परिभाषा करते हो, वह अलग है। उस अपेक्षा से मैं अनाथ नहीं था। धन, सत्ता, परिवार स

24. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

24.   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. दृश्य तो जैसा है, वैसा ही रहता है। दृश्य नहीं बदला करता। दृष्टि को बदलना होता है! हमें बदलना होता है। और हमारी मुसीबत यह है कि हम सदैव दृश्य बदलने की ही कामना करते हैं, हमारा पुरूषार्थ भी दृश्य बदलने के लिये होता है। यदि मैं न बदला तो दृश्य बदल भी जायेगा तो क्या हो जायेगा? क्योंकि दृश्य वैसा दिखाई नहीं देता, जैसा वह होता है। बल्कि दृश्य वैसा दिखाई देता है, जैसे हम होते हैं। हम अपनी आँखों पर चढे चश्मे के रंग को दृश्य पर स्थापित करते हैं। संसार हमारी ही दृष्टि का हस्ताक्षर है। सूखी घास को खाने से इंकार करने वाले घोडे की आँखों पर जब गहरे हरे रंग का चश्मा बिठा दिया जाता है तो, वह उसी सूखी घास को हरी मान कर बडे चाव और स्वाद से खा जाता है। यह दृष्टिकोण का अन्तर है। उसी संसार में ज्ञानी भी रहता है और उसी संसार में अज्ञानी भी रहता है। दृश्य वही है, लोग वही है, सृष्टि वही है, पेड पौधे वही है, घटनाऐं वही है, शब्द वही है, प्रेम मोह का जाल वही है! सब कुछ एक सा है। अन्तर दृष्टिकोण का है। ज्ञानी उसी दृश्य से अनासक्ति का विकास करता है और अ

23. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

23. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. कष्ट और दु:ख की परिभाषा समझने जैसी है। उपर उपर से दोनों का अर्थ एक-सा लगता है, पर गहराई से सोचने, समझने पर इसका रहस्य कुछ और ही पता लगता है। कष्टों में जीना अलग बात है और दु:ख में जीना अलग बात है। कष्ट जब हमारे मन को दु:खी करते हैं तो जीवन अशान्त हो जाता है। और कष्टों में भी जो व्यक्ति मुस्कुराता है, वे जीवन जीत जाते हैं। कष्ट तो परमात्मा महावीर ने बहुत भोगे, परन्तु वे दु:खी नहीं थे। उन कष्टों में भी सुख का अनुभव था। कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार कर लेता है, तो यह तो संभव है कि कष्ट मिले, पर वह दु:खी नहीं होता। कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार नहीं करता, तो यह व्यक्ति दु:खी हो जाता है। यों समझे कि स्वीकार्य तकलीफ कष्ट है और अस्वीकार्य तकलीफ दु:ख है। कष्टों पर हमारा कोई वश नहीं है। पर दु:ख पर हमारा वश है। आने वाले कष्ट तो हमारे पूर्व जीवन का परिणाम है जो भाग्य बनकर हमारे द्वार तक पहुँचा है। पर कष्ट भरे उन क्षणों में दु:ख करना, आने वाले समय में और कष्ट पाने का इन्तजाम करना है। इस दुनिया में हम कष्टों से भाग नहीं सकते। और बचाव के उप

22. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

22 . नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. संवत्सरी महापर्व निकट है। हमेशा की भांति इस वर्ष भी यह हमारी कुण्डी खटखटाने चला आया है। यह ऐसा अतिथि है, जो आमंत्रण की परवाह नहीं करता। जो बुलाने पर भी आता है, नहीं बुलाने पर भी आता है। यह ऐसा अतिथि है जो ठीक समय पर आता है। पल भर की भी देरी नहीं होती। जिसके आगमन के बारे में कभी कोई संशय नहीं होता। सूरज के उदय और अस्त की भांति नियमित है। यह आता है, जगाता है और चला जाता है। जो देकर तो बहुत कुछ जाता है, पर लेकर कुछ नहीं जाता। यह हम पर निर्भर है कि हम जाग पाते हैं या नहीं! इसे सुन पाते हैं या नहीं! यह अपना कर्त्तव्य निभा जाता है। और हम नहीं जागते तो यह नाराज भी नहीं होता। कितनी आत्मीयता और अपनत्व से भरा है यह पर्व! न नाराजगी है, न उदासी है, न क्रोध है, न चापलूसी है, न शल्य है, न मोह! वही जानी पहचानी मुस्कुराहट लिये... आँखों में रोशनी लिये... जीने का एक मजबूत जज़्बा लिये..... हमें रोशनी से भरने, जीने का एक मकसद देने, एक मीठी मुस्कुराहट देने चला आता है। मुश्किल हमारी है कि हम इसे देखते हैं, जानते हैं, पहचानते हैं, सोचते हैं, विचारते

21. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

21    नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जीवन पुण्य और पाप का परिणाम है। पूर्व पर्याय {पूर्व जन्म} का पुरूषार्थ हमारे वर्तमान का अच्छापन या बुरापन तय करता है। जीवन बिल्कुल हमारी इच्छाओं से चलता है। इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं होता। हमारे साथ जो भी होता है, हमारी इच्छा से ही होता है। मन में पैदा हुए विचारों को ही जिन्हें हम रूचि से सहेजते हैं, इच्छा माना है। परन्तु यहाँ इच्छा का अर्थ   मन में पैदा हुए विचार ही नहीं है। यहाँ इच्छा का अर्थ थोडा व्यापक है। इसमें मन तो मुख्य है ही, क्योंकि बिना मन के तो कोई प्रवृत्ति होती नहीं। इच्छा का अर्थ है- मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति! जो भी हमारे साथ हुआ है, होता है, होगा, वह सब इसी का परिणाम है। होता सब कुछ हमारी इच्छा से है। पर वर्तमान की इच्छा से नहीं, पूर्वकृत इच्छा से! पूर्व में हमने जैसा सोचा, जैसा बोला, जैसा किया, वही वर्तमान में हमें उपलब्ध होता है। यह तय है कि उपलब्धि पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। क्योंकि इसकी चाभी हमारे हाथ से पूर्व जीवन में ही निकल चुकी होती है। पुण्य और पाप का उदय महत्वपूर्ण नहीं है! पुण्य और

20 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

20   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. जीवन को हम गणित से जोड कर जीते हैं। गणित की फ्रेम में ही हमारी सोच गति करती है। अतीत से प्रेरणा लेनी हो, वर्तमान का निर्धारण करना हो या भविष्य की आशा भरी कल्पनाओं में डुबकी लगानी हो, हमारे सोच की भाषा गणित में ही डूबी होती है। जीवन गणित नहीं है। इसे गणित के आधार पर जीया नहीं जा सकता। आज उसने 1000 रूपये कमाये हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कल भी वह इतना ही कमायेगा। वह ज्यादा भी कमा सकता है, कम भी! पर सोच ऐसी ही होती है। यह जानने पर भी कि यह संभव नहीं है। उसका अतीत उसकी गणित को प्रमाणित नहीं करता। फिर भी उसकी आशा भरी सोच उसी गणित से चलती है। यही उसके जीवन का सबसे बडा धोखा है। वह एक दिन के आधार पर एक मास की उपलब्धि और उसके आधार पर वर्ष भर की उपलब्धि के मीठे सपनों में खो जाता है। आज मैंने 500 कमाये हैं तो एक माह में 15 हजार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हजार कमा लूंगा। पाँच वर्ष में तो नौ लाख कमा लूंगा। अभी पाँच वर्ष बीते नहीं है। कमाई हुई नहीं है। होगी भी या नहीं, पता नहीं है। पर नौ लाख के उपयोग की मधुर कल्पनाओं में वह खो जाता है।