17 जटाशंकर
-उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
विद्यालय से न केवल अपनी कक्षा
में बल्कि पूरे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त कर खुशियों से झूमता हुआ जटाशंकर
का बेटा घटाशंकर अपने घर लौट रहा था। वह बार बार अपने हाथ में कांप रहे प्रमाण पत्र
को देखता और मन ही मन राजी होता। उसके दोस्त प्रसन्न थे। और उनकी बधाईयों को प्राप्त
कर घटाशंकर प्रसन्न था।
वह रास्ते भर विचार करता रहा
कि आज मेरे पिताजी जब इस प्रमाण पत्र को देखेंगे। मैंने भिन्न भिन्न विषयों में जो
अंक प्राप्त किये हैं, उनकी संख्या देखेंगे तो वे मुझ पर कितने राजी होंगे? आज मेरी
हर इच्छा पूरी होगी। पूरे घर में मेरी चर्चा होगी। पिताजी, माताजी, बडे भैया, मेरी
जीजी के होठों पर आज मेरा ही नाम होगा। वह कल्पना कर रहा था कि पिताजी जब मेरी इच्छा
जानना चाहेंगे तो मैं क्या मागूंगा?
आज छोटी मोटी किसी चीज से काम
नहीं चलेगा! मैं तो मारूति मागूंगा! या फिर हीरो होण्डा ही ठीक रहेगा।
अपनी कल्पनाओं की काल्पनिक मस्ती
में आनंदित होता हुआ जब वह घर पहुँचा तो प्यास लगने पर भी पहले उसने पानी नहीं पीया,
वह खुशी खुशी पापा के पास पहुँचा। उसके पिताजी मि. जटाशंकर अपने बहीखातों में व्यस्त
थे।
घटाशंकर ने पिताजी से कहा- पिताजी
देखो! मैंने कितने अंक प्राप्त किये है। गणित में 100 में से 95 अंक, हिन्दी में
100 में से 90, अंग्रेजी में 100 में 92 अंक पाये हैं। आप देखो तो सही मेरा प्रमाण
पत्र! आश्चर्यचकित रह जायेंगे।
पिताजी ने प्रमाण पत्र हाथ में
लिया। एक पल देखने और सोचने के बाद जोर से खींचकर एक तमाचा अपने बेटे के गाल पर मारा
!
घटाशंकर तो हैरान हो गया। कहाँ
तो मैंने कल्पना की थी कि मुझे इनाम मिलेगा, यहाँ तो मार पड रही है। उसने पूछा- पिताजी
! आपने मुझे मारा क्यो?
जटाशंकर ने कहा- मेरा बेटा होकर
कम करता है। 100 के 95 कर दिये। अरे मारवाड़ी 100 के 150 करता है। तूंने तो कम करके
मेरी नाक काट दी।
यदि तूंने 100 में से 110 अंक
पाये होते तो मैं राजी होता।
घटाशंकर ने अपने पिताजी का तर्क
सुना तो अपना माथा पीट लिया।
संसारी आदमी सदैव सौदे की भाषा
में ही बात करता है। वही समझता है। संसार को सौदे की भाषा में समझे, तब तक तो बात समझ
में आती है। परन्तु जब धर्म में भी सौदे की भावना आती है, वहाँ समझना चाहिये कि उसने
धर्म की महिमा को नहीं समझा है।
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