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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

30 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.

30 जटाशंकर     -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी . सा.
जटाशंकर रोज अपने घर के पिछवाडे जाकर परमात्मा से हाथ जोड कर प्रार्थना करता- हे भगवान! कुछ चमत्कार दिखाओ! मैं रोज तुम्हारी पूजा करता हूँ! नाम जपता हूँ। फिर इतना दुखी क्यों हूँ!
भगवन् मुझे कुछ नहीं चाहिये। बस! थोडे बहुत रूपये चाहिये। कभी कृपा करो भगवन्! ज्यादा नहीं बस सौ रूपये भेज दो! कहीं से भेजो! आकाश से बरसाओ चाहे... पेड पर लटकाओ! मगर भेजो जरूर! रोज रोज नहीं, तो कम से कम एक बार तो भेजो! और भगवन् ध्यान रखना! मैं अपनी आन बान का पक्का आदमी हूँ। पूरे सौ भेजना! ज्यादा मुझे नहीं चाहिये। एक भी ज्यादा हुआ तो भी मैं नहीं रखूंगा। एक भी कम हुआ, तब भी नहीं रखूंगा। जहाँ से रूपया आयेगा, उसी दिशा में वापस भेज दूंगा। मगर कृपा करो! एक बार सौ रूपये बरसा दो भगवन्!
पडौस में रहने वाला घटाशंकर रोज उसकी यह प्रार्थना सुनता था। उसने सोचा- चलो.. इसकी एक बार परीक्षा कर ही लें। देखें... यह क्या करता है।
उसने हँसी मज़ाक में एक थैली में 99 रूपये के सिक्के डाले और शाम को जब जटाशंकर आँख बंद कर प्रार्थना कर रहा था तब उसने दीवार के पास छिप कर निन्याणवें रूपये की वह थैली उसके हाथ में फेंक दी।
थैली का वजन भांप कर तुरंत जटाशंकर ने अपनी आँखें खोली। इधर उधर देखा.. कोई नजर नहीं आया। नजर कोई कहाँ से आता क्योंकि घटाशंकर तो थैली फेंक कर छिप गया था। वह छिप कर सब देख रहा था।
जटाशंकर तो थैली पाकर फूला नहीं समा रहा था। उसने सोचा- अहा! भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। मैं रोज मांगता था.. आज मेरी मांग लगता है पूरी हो गई है। भगवान के प्रति उसकी श्रद्धा बढ गई।
उसने बुदबुदाते हुए कहा- लेकिन भगवान! आपको मेरी शर्त याद है न! पूरे सौ होने चाहिये। एक भी कम नहीं! एक भी ज्यादा नहीं! कम-ज्यादा हुए तो वापस लौटा दूंगा।
जटाशंकर ने वहीं बैठकर थैली खोलकर रूपये गिनने शुरू किये! रूपये 99 निकले। उसका चेहरा उतर गया।
दीवार की ओट में छिपा घटाशंकर सोच रहा था कि अब 99 ही है... थैली फेंक वापस जल्दी से!
जटाशंकर ने दुबारा गिनना शुरू किया- शायद पहले मेरी गणना में भूल हो गई हो। लेकिन दुबारा भी 99 ही निकले। अब 99 ही थे। सौ थे ही नहीं तो एक बार गिनो चाहे पचास बार गिनो... 99 कभी भी सौ नहीं हो सकते।
जटाशंकर बहुत विचार में पड गया। उसने सोचा- भगवान की गणना में भूल कैसे हो सकती है। मैंने 100 मांगे थे..तो 99 कैसे निकले! अब क्या करूँ! यह थैली मुझे वापस फेंकनी पडेगी। यह तो ठीक नहीं हुआ। पैसा पाने के बाद वापस खोना पडेगा। वह काफी देर तक थैली हाथ में लेकर बैठा रहा... सोचता रहा...बार बार पैसे रगड रगड कर गिनता रहा!
घटाशंकर दीवार के उस पार देख देख कर मुस्कुरा भी रहा था और थैली का इंतजार भी कर रहा था। वह मन ही मन जटाशंकर को कह रहा था- भैया! कितनी ही बार गिन ले- 99 ही है। क्योंकि यह थैली कोई भगवान ने नहीं भेजी, बल्कि मैंने भेजी है। अब तूं जल्दी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वापस फेंक! ताकि मुझे मेरी थैली मिले और काम पे लगूं! लेकिन वह चिन्ता भी कर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि यह प्रतिज्ञा भूल जाय और थैली रख ले... मुझे सौ रूपयों का नुकसान हो जायेगा।
वह आँखें फाड कर देख रहा था।
जटाशंकर विचार करते करते अचानक राजी होते हुए बोला- अरे.. वाह भगवान! तुम भी क्या खूब हो.. पक्के बनिये हो। भेजे तो तुमने पूरे सौ रूपये! परंतु एक रुपया थैली का काटकर 99 रूपये रोकड भेज दिये! वाह भगवान वाह!
घटाशंकर ने अपना माथा पीट लिया।
सांसारिक स्वार्थ के लिये तर्क करना हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं! परन्तु अपनी बुद्धि का प्रयोग स्वयं के लिये अर्थात् अपनी आत्मा के लिये नहीं करते।

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