30. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
करने और चाहने की क्रिया में
बीतता है पूरा जीवन! कुछ हम करते हैं जगत में! कुछ हम चाहते हैं जगत से! हमारा अपना
व्यवहार जगत के प्रति कैसा भी हो, पर हम जगत से सदा अच्छे व्यवहार की कामना में जीते
हैं।
दूसरों को अच्छा कहने में कंजूसी
करने वाला व्यक्ति दूसरों से अपने लिये सदैव अच्छा कहलवाना चाहता है।
यह हमारे सोच की तराजू है। इस
तराजू में समतुला का अपना कोई अर्थ नहीं है। समतुला की डंडी स्वतंत्र भी नहीं है। न
केवल इसके दोनों पलडे हमारे हाथ में होते हैं बल्कि समतुला की डंडी भी हमारे इशारों
पर नाचती है।
पलडों की सामग्री बराबर होने
पर भी हम उसे बराबर रहने नहीं देते। हमारे स्वार्थ की अंगुली पलडों को दांये बांयें
घुमाती रहती है। जिधर हमें अपना पक्ष नजर आता है, उधर घुमा देते हैं।
हम देखते भी वैसे ही है! हम सोचते
भी वैसे ही है! हम बोलते भी वैसे ही है! सच तो यह है कि सत्य से हमें लेना देना नहीं
है। हमें अपनी सोच से लेना देना है। हमें अपने स्वार्थ से लेना देना है।
या यों कहें कि सत्य भी यदि हमारे
स्वार्थ की फ्रेम में फिट होता है तो ठीक है। अन्यथा हमें उससे कोई मतलब नहीं है।
इसलिये हम सत्य के प्रमाण नहीं
खोजते बल्कि अपने स्वार्थ को प्रमाण के आधार पर सत्य साबित करने की मेहनत करते हैं।
फ्रेम हमारी है। फोटो के अनुसार
फ्रेम नहीं बनती बल्कि फ्रेम के अनुसार फोटो में काँटछाँट होती है। इससे फोटो का अपनी
असली आकार स्थिर नहीं रह पाता है। वह खो जाता है।
हमारी आलोचना जब दूसरा करता है,
तो उस व्यक्ति के विषय में हमारे भाव अलग होते हैं! और जब हम स्वयं किसी की आलोचना
करने लगते हैं, उन क्षणों के अपने विषय में हमारे भाव अलग होते हैं!
यदि कृत्य की दृष्टि से देखें
तो जो भाव अन्य आलोचक के प्रति हैं, वही अपने बारे में भी होने चाहिये! पर हमारी नजर
कृत्य पर नहीं होती....! क्योंकि कृत्य को देखने के लिये शुद्ध दृष्टि चाहिये! जबकि
हमारी दृष्टि तो छनकर बाहर आती है! वह स्वार्थ की छलनी में छनती है! इस दृष्टि में
रोशनी नहीं होती! रोशनी के लिये समतुला की नजर चाहिये! मैं किसी ओर को देखूं या अपने
को, नजर एक ही चाहिये! यही नजर सम्यक्दर्शन है।
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