19 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
एक व्यापारी अपनी दुकान पर बैठा
था। ग्राहक खडा था। महत्वपूर्ण सौदा चल रहा था। सामान तौला जा रहा था! थैलों में भरा
जा रहा था। व्यापारी अपने काम में एकाग्र था। ग्राहक की नजर भी पूर्ण एकाग्र थी। सामान
कुछ ज्यादा ही तौलना था। पाँच मिनट बीत चुके थे। आधा काम हो चुका था।
इतने में एक भिखारी भिक्षा पात्र
हाथ में लिये भगवान् के नाम पर कुछ मांगने के लिये आया। उसने अलख लगाई। ग्राहक ने उस
ओर मुड कर भावहीन चेहरे से उसे देखा। व्यापारी का ध्यान भी उस ओर चला गया।
तुरंत व्यापारी ने अपना काम छोडा!
गल्ले के पास में गया। एक रूपया निकाला। भिखारी को देकर फिर काम में लग गया।
इस दृश्य ने उस ग्राहक के मन
में कई प्रश्न जगा दिये। उसने कहा- भाई साहब! आपने काम बीच में छोडकर वहाँ क्यों गये!
यदि आपको एक रूपया भिखारी को देना ही था तो हाथ का काम पूरा करके भी दिया जा सकता था।
-क्यों? व्यापारी ने प्रतिप्रश्न
किया!
-क्यों क्या? आखिर था तो भिखारी
ही! कहाँ जाता! आप कहते कि ठहर! मैं अभी रूपया देता हूँ! वो बिचारा कहाँ जाता! पाँच
मिनट तो क्या आधा घंटा भी कहीं नहीं जाता! इसलिये मुझे आपका यह व्यवहार समझ में नहीं
आया कि आप सामान तौलना अधबीच में छोडकर रूपया देने वहाँ क्यों गये?
उस व्यापारी ने कहा- भैया! तुम्हारी
बात तो सही है। यदि मैंने उसे खडा रहने का कहा होता तो यह आधे घंटे तक भी खडा ही रहता!
परन्तु मेरे मन में यह विचार आया कि जब इसे देना ही है तो इंतजार क्यों करवाना!
इसे जल्दी पैसे देकर रवाना करूँगा
तो इसका समय बचेगा... और यह दो चार घर ज्यादा घूमकर ज्यादा कुछ पा सकेगा! जब देना ही
है तो सामने वाले की लाचारी का लाभ उठाकर देर तक उसे प्रतीक्षा करवाकर और संशयग्रस्त
बनाकर खडा रखने से क्या लाभ! आखिर वह भी एक इन्सान है। माना कि पुण्य की अल्पता इसे
इस जीवन में मिली है। पर उसके पुण्य की अल्पता का मजाक बना कर हम अपने पुण्य को अल्प
क्यों करे?
उस व्यक्ति का यह प्रत्युत्तर
एक सीख है जो जीवन में उतारने जैसी है।
देना है... पास में भी है...
फिर देर क्यों होती है!
धर्म को समझे बिना धर्म किया
नहीं जा सकता। धर्म तो समझ है! जहाँ समझ है, वहाँ धर्म है! समझ के अभाव में तो अधर्म
ही हो सकता है। किसी को व्यर्थ प्रतीक्षा करवाना धर्म नहीं है। मात्र अपना महत्व बढाने
के लिये दूसरों को परेशान करना धर्म नहीं है।
धर्म वह है जो हमारे अन्तर को
पवित्र और व्यवहार को सरल बनाता है।
हो मानस में पवित्रता, होय सरल
व्यवहार।
यही धर्म का अर्थ है, यही धर्म
का सार।।
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