23. नवप्रभात
--उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
कष्ट और दु:ख की परिभाषा समझने
जैसी है। उपर उपर से दोनों का अर्थ एक-सा लगता है, पर गहराई से सोचने, समझने पर इसका
रहस्य कुछ और ही पता लगता है।
कष्टों में जीना अलग बात है और
दु:ख में जीना अलग बात है। कष्ट जब हमारे मन को दु:खी करते हैं तो जीवन अशान्त हो जाता
है। और कष्टों में भी जो व्यक्ति मुस्कुराता है, वे जीवन जीत जाते हैं।
कष्ट तो परमात्मा महावीर ने बहुत
भोगे, परन्तु वे दु:खी नहीं थे। उन कष्टों में भी सुख का अनुभव था।
कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार
कर लेता है, तो यह तो संभव है कि कष्ट मिले, पर वह दु:खी नहीं होता।
कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार
नहीं करता, तो यह व्यक्ति दु:खी हो जाता है। यों समझे कि स्वीकार्य तकलीफ कष्ट है और
अस्वीकार्य तकलीफ दु:ख है।
कष्टों पर हमारा कोई वश नहीं
है। पर दु:ख पर हमारा वश है। आने वाले कष्ट तो हमारे पूर्व जीवन का परिणाम है जो भाग्य
बनकर हमारे द्वार तक पहुँचा है। पर कष्ट भरे उन क्षणों में दु:ख करना, आने वाले समय
में और कष्ट पाने का इन्तजाम करना है।
इस दुनिया में हम कष्टों से भाग
नहीं सकते। और बचाव के उपाय सदैव सार्थक परिणाम नहीं लाते। कभी कभी हमारे उपाय व्यर्थ
भी चले जाते हैं। क्योंकि यह एक अन्तहीन श्रृंखला है। एक कडी तोडते हैं तो दूसरी कडी
उपस्थित हो जाती है। पेट दर्द शान्त होता है तो सिर में दर्द पैदा हो जाता है। दु:खती
आँख की दवा की जाती है तो अपेन्डिक्स का दर्द उपस्थित हो जाता है। शरीर ठीक रहता है
तो मित्र धोखा दे जाता है। मित्र वफादार होता है तो कोई व्यापारी अपनी नीति बदल देता
है। व्यापार ठीक रहता है तो परिवार परेशानी खडी कर देता है। पुत्र कहना नहीं मानता।
ये सब ठीक रहता है तो कभी झूठे कलंक का सामना करना पड जाता है। निहित स्वार्थों के
कारण बदनामी का शिकार हो जाता है। आदि आदि... एक अन्तहीन श्रृंखला!
कोई भी कितना भी बडा क्यों न
हो, उसे संसार में कष्टों का भोग तो बनना ही पडता है। ऐसी दशा में परमात्मा महावीर
की वाणी ही उसे दु:ख से बचाती है। कष्टों से बचाने का तो कोई उपाय नहीं है। क्योंकि
वह मेरे कृत्यों का ही परिणाम है। पर उन क्षणों में मेरे चित्त में समाधि का भाव,
सुख का भाव कैसे टिके, इस सूत्र को समझ लेना है।
और वह सूत्र है- उन कष्टों को
मन से स्वीकार कर लेना! जो मिला है, जैसा मिला है, मुझे स्वीकार्य है। क्योंकि मेरे
अस्वीकार करने से स्थिति बदल तो नहीं जायेगी। अस्वीकार करने से मात्र दु:ख मिलेगा,
पीडा मिलेगी और मिलेगी चित्त की विभ्रम स्थिति!
इससे बचने का उपाय है- प्रसन्नता
से स्वीकार करना! यह प्रसन्नता ही हमारे भविष्य की प्रसन्नता का आधार बन जायेगी।
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