28. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जो करता है, वह जरूरी नहीं है
कि सही ही हो! वह गलती भी कर सकता है! गलती का अनुमान ‘करने’ से पहले भी हो सकता है... और बाद
में भी हो सकता है।
स्वभावत: बाद में ही अधिक होता
है, क्योंकि पहले पता चल जाय तो फिर गलती कर नहीं पाता।
बाद में पता चलना भी बहुत हितकर
होता है। वह बोध आगे के लिये आँख खोल देता है।
हमें अपनी गलती का पता अपने से
भी चल सकता है, और दूसरों से भी! अपनी गलती का अहसास अपने से होता है, वहाँ इतनी समस्या
नहीं होती! पर जब हमें अपनी गलती का अहसास औरों से होता है, उन क्षणों को सहन कर पाना
बहुत मुश्किल होता है।
दूसरों की ओर अंगुलियाँ उठाना
बहुत आसान होता है, पर अपनी ओर उठी अंगुलियों को झेल पाना निश्चित ही मुश्किल कार्य
है।
जुडे हुए हाथों की अपेक्षा उठी
हुई अंगुलियाँ ज्यादा उपकारी होती है। क्योंकि जुडे हुए हाथ हमें असावधान बना सकते
हैं, जबकि उठी हुई अंगुलियाँ हमें जागरूक करती है।
ऐसा बार बार कहना कि मेरी गलती
हो तो बताना, बहुत आसान है। पर जब कोई बताता है, तब चित्त को कषाय भावों से न भरते
हुए उपकारक भावों से भरना बहुत मुश्किल होता है।
गलती को गलती के रूप में जानना
हमारे लिये बहुत आसान है, पर उसे गलती के रूप में मानना और स्पष्टत:, प्रकटत: स्वीकारना
सहज नहीं होता।
जो ऐसा कर लेता है, वह अपने जीवन
को सम्यक्त्व की रोशनी से भर लेता है।
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