25. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी
म.सा.
सम्राट् ने साधु को संसारी बनाना
चाहा है। उसने साधु बनने का कारण भी जानना चाहा है। ‘मैं अनाथ था, इसलिये साधु बन गया’ इस कारण को जानकर वह प्रसन्न हुआ
है, क्योंकि उसने भी इसी कारण का अनुमान किया था।
अपने अनुमान को सही जानकर आनंदित
हुआ है। वह दर्प से दपदपा उठा है। उसने अहंकार भरी हुंकार के साथ कहा है- आओ! मेरे
साथ आओ, साधु! मैं तुम्हारा नाथ बनूँगा!
साधु मुस्कुराया है। उसने आँखों
में आँखें डालकर कहा है- जो खुद का नाथ नहीं है, वह किसी और का नाथ कैसे बन सकता है।
तूं तो स्वयं अनाथ है, फिर मेरा नाथ कैसे बनेगा!
और सम्राट् की आँखें लाल हो गई
है। पर उसकी लाल आँखों पर साधु की निर्मल, पवित्र और स्थिर आँखें हावी हो गई है। उन
आँखों में उसे रहस्य भरी गहराई नजर आई है।
तेरा है क्या राजन्! और तो और,
यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है। फिर क्यों तुम नाथ होने का ढोंग कर रहे हो!
मेरे द्वारा दिये गये उत्तर में
‘अनाथ’ शब्द
का सही अर्थ तुम नहीं लगा पाये हो, राजन्! तुम अनाथ की जो परिभाषा करते हो, वह अलग
है। उस अपेक्षा से मैं अनाथ नहीं था। धन, सत्ता, परिवार सब कुछ मेरे पास था, फिर भी
अनाथ था। क्योंकि मैं असह्य पीडा से भर गया था। मेरा परिवार मेरे दर्द के कारण आँसू
बहाते थे, दवाई लाते थे, चंदन का लेप करते थे, पर मेरी पीडा को बाँट नहीं सकते थे।
और मेरी आँखों में प्रश्नचिह्न
तैरने लगा था। सब कुछ होने पर भी मैं अकेला हूँ। और तभी एक संत ने मेरे कक्ष में प्रवेश
किया था। उन्होंने कहा था- वत्स! दुख तो खुद को ही भोगना होता है। इसलिये दूसरों की
शरण में सुख मत खोजो! सुख पाना है तो अपनी शरण में जाओ। अपने मालिक बनो। जो दूसरों
का मालिक बनने की कोशिष करता है, वह तो अनाथ होता है। तुम्हें नाथ बनना है तो अपने
नाथ बनो। और मैं अपनी शरण में आ गया।
परमात्मा की स्तुति में गाया
जाने वाला यह श्लोक कितनी गहराई समेटे है-
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं
मम।
और कोई शरण नहीं है। जब भी जिस
किसी का शरण लिया है, उसने मेरा साथ छोड दिया है। अब तो केवल हे परमात्मन्! तेरा ही
शरण है। परमात्मा का शरण लेना, अपनी आत्मा का शरण लेना है। आत्मा को सर्वस्व मान कर
उसे संपूर्ण भाव से स्वीकार करते हुए उसके अनुभव-रस में डूब जाना है।
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