34 जटाशंकर -उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.
जटाशंकर ठग था। ठगी करके अपना
गुजारा चलाता था। वह घी बेचने का काम करता था। एक दिन उसे रास्ते घटाशंकर मिल गया।
जटाशंकर ने सोचा- मैं इसे पटा लूं और घी बेच दूं। उसे पता नहीं था कि घटाशंकर भी पहुँचा
हुआ ठग है। वह भी यह विचार कर रहा था कि जटाशंकर को पटा कर इसे सोने की अंगूठी बेच
दूं।
जटाशंकर ने घटाशंकर से और घटाशंकर
ने जटाशंकर से परिचय साधा। दोनों आपस में बात करने लगे। घटाशंकर ने पूछा- भैया! क्या
हाल चाल है?
जटाशंकर ने जवाब दिया- बहुत मुश्किल
काम हो रहा है। जब से डालडा लोग खाने लगे हैं, असली घी को तो कोई पूछता ही नहीं है।
मैं सुबह से घूम रहा हूँ गाय का घी लेकर... पर कोई खरीददार नहीं मिला। देखो, कितना
सुगंधदार, शानदार, दानेदार घी है! यों कहकर थोडा-सा घी घटाशंकर की अंगुली पर धरा।
घटाशंकर बोला- मेरा भी यही हाल
है। मैं सोने के आभूषण बेचता हूँ! पर सत्यानाश हो इन नकली आभूषणों का! जब से नकली आभूषण
बाजार में आये हैं, लोग वही पहनने लगे हैं। असली सोने के आभूषणों को कोई हाथ भी नहीं
लगाता। देखो, कितना सुन्दर यह आभूषण है। यह कहकर उसे सोने की अंगूठी दिखाई।
दोनों ने एक दूसरे को पटाना प्रारंभ
किया। घटाशंकर ने जटाशंकर से घी खरीद लिया। और जटाशंकर ने घटाशंकर से अंगूठी!
दोनों अपने मन में बडे राजी हुए।
सोचते थे अपने मन में कि मैंने उसे ठगा।
घर जाने के बाद जब घटाशंकर ने
घी का डिब्बा दूसरे डिब्बे में खाली किया तो पाया उपर दो अंगुल ही घी था, उसके नीचे
तो पानी भरा था।
जटाशंकर ने सोने के अंगूठी को
जब किसी सुनार को दिखाई तो पता लगा कि अंगूठी तो पीतल की है, उपर सोने का मात्र धूआं
है।
दोनों चिल्लाने लगे कि मुझे ठग
लिया है।
यह दुनिया ऐसी ही है। हम सोचते
हैं कि मैंने ठगा, पर हकीकत है कि हम ठगे गये। यहाँ हर व्यक्ति एक दूसरे को ठग रहा
है। और राजी हो रहा है। सत्य की आँख खुले तो जिंदगी बदल जाये।
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