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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

RATANPURA KATARIYA GOTRA HISTORY रतनपुरा कटारिया गोत्र का इतिहास


रतनपुरा कटारिया गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज

इस गोत्र का संबंध रतनपुर नगर से है। रतनपुर नगर वि. सं. 1082 में सोनगरा चौहान रतनसिंह ने बसाया था।  इनकी पांचवीं पीढी में हुए धनपाल एक बार जंगल की ओर जा रहे थे। थकने पर तालाब की पाल पर रूके। पेड की छांव में सो गये। कुछ ही पलों में निद्राधीन हो गये।
तभी एक खतरनाक विषधर उधर से गुजरा और सोये हुए धनपाल राजा को डस लिया। जहर शरीर में व्याप्त हो गया। राजा मूर्च्छित हो गये। अद्भुत संयोग था कि उस समय विहार करते हुए प्रथम दादा गुरुदेव खरतरगच्छाचार्य श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी महाराज अपने शिष्यों के साथ उधर पधारे। राजा धनपाल की स्थिति देख कर वे समझ गये कि सर्प ने इन्हें काटा है।
गुरुदेवश्री ने कृपा कर विषापहार मंत्र से अभिमंत्रित जल राजा पर छिडका। कुछ ही पलों में जहर का असर दूर हो गया। राजा सचेत होकर बैठा। उसने गुरु महाराज को देख कर वंदनाऐं की। निवेदन किया- गुरुदेव! आज आपने ही मेरा जीवन बचाया है। मैं आपका भक्त बन गया हूँ। आपका उपकार जीवन में कभी भी विस्मृत नहीं कर सकता हूँ। आप कृपा करें और रतनपुर पधारें!

गुरुदेव ने रतनपुर की ओर विहार किया। राजा ने विराट् समारोह के साथ गुरुदेव का नगर प्रवेश करवाया। प्रवचन श्रवण किया। राजा ने सभा के समक्ष गुरुदेव के उपकारों का वर्णन करके निवेदन किया कि मैं आपश्री को प्रचुर मात्र में स्वर्ण अर्पण करना चाहता हूँ। आप कृपा करके स्वीकार करें।
गुरुदेव ने फरमाया- हम जैन साधु हैं। साधु द्रव्य नहीं रखता। धन रखना साधुजीवन की मर्यादा के खिलाफ है।
पूज्य गुरुदेव के इन निःस्पृह विचारों से राजा बहुत अधिक प्रभावित हुआ। उसने धर्म के रहस्य को जानने की जिज्ञासा प्रस्तुत की। गुरुदेव ने सिद्धान्तों का रहस्य समझाते हुए आगार धर्म और अणगार धर्म की व्याख्या की।
राजा के आग्रह के कारण गुरुदेव ने चातुर्मास वहीं किया। प्रवचनों से प्रभावित होकर राजा ने सपरिवार वि. सं. 1182 में जैन धर्म स्वीकार कर गुरुदेव का अनुयायी श्रावक बन गया। उस समय गुरुदेव उनके सिर पर वासचूर्ण डाल कर रतनपुरा गोत्र की स्थापना की। इस संबंध में किसी कवि ने दोहा लिखा-
संवत् ग्यारे बयासी में, विषधर नो विष टाल।
जीवाडियो धनपाल ने, सद्गुरु एवो भाल।।
इस रतनपुरा गोत्र की 10 शाखाऐं हुईं-
रतनपुरा, कटारिया, बलाही या बलाई, कोटेचा, सापद्रहा, सामरिया, नाराणगोत्र, भलाणिया, रामसीणा, बोहरा।
इन्हीं रतनपुरा गोत्र के धनपालजी के वंश में सोमजी के पुत्र झांझणसिंह नाम के बडे प्रतापी पुरूष हुए। श्री झांझणसिंह मांडवगढ के बादशाह गौरी के मंत्री थे। उन्होंने शत्रुंजय तीर्थ के छह री पालित विशाल संघ का आयोजन किया था। उस समय आपने 92 लाख की बोली लगाकर परमात्मा की आरती उतारी थी। यह घटना उनकी प्रभु भक्ति का विवरण प्रस्तुत करती है।
बाद में बादशाह के सामने किसी के चुगली खाने पर जब बादशाह रूष्ट हो गया। झांझणसिंह को दरबार में हाजिर कर पूछा गया कि आपने खजाने के कितने रूपये चुराये।
झांझणसिंह ने बिना किसी झिझक के जवाब दिया- मैंने एक पैसा भी नहीं लिया है। खजाने का एक पैसा भी मेरे लिये हराम है। हॉं! आपकी राशि से मैंने आपका विश्व प्रसिद्ध नाम खुदा तक पहुँचा दिया है। आत्मविश्वास व प्रेम से परिपूर्ण उत्तर सुनकर बादशाह प्रसन्न हो उठा। बादशाह ने झांझणसिंह को सम्मानित करते हुए उनके हाथ में कटार सौंपी। कटार साथ में रखने का सम्मान पूर्ण अधिकार दिया। तब से इनके वंशज कटारिया कहलाने लगे।
यह घटना राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में संरक्षित हस्त लिखित ग्रन्थ इतिहास ओसवंशमें तथा नाहर ग्रन्थागार के अथ महाजनां री जातां रो छन्दमें प्राप्त होती है।
झांझणसिंह के पुत्र पेथडशा की अपनी ऐतिहासिक प्रसिद्धि है। इसी वंश में बाद में जावसी कटारिया हुए। उस समय किसी कारणवश राजा सभी कटारिया वंश वालों पर क्रुद्ध हो गया। सभी को कैद करके उन पर 22 हजार रूपयों का दण्ड दे दिया। उस समय खरतरगच्छ के भट्टारक जगरूपजी महाराज ने चमत्कार दिखा कर सभी को छुडाया। दण्ड भी बादशाह से माफ करवा दिया। इस कटारिया गोत्र में कई विशिष्ट व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने अपनी विशिष्ट प्रतिभा और योग्यता के आधार पर समाज व राज्यों में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया।
बलाही- रतनपुरा कटारिया गोत्र की ही एक शाखा बलाही है। कटारिया खानदान में हुए एक श्रेष्ठि का लेन देन का व्यवहार बलाईयों (एक सामान्य जाति के लोग) के साथ करते थे। इस कारण लोग उन्हें बलाईया बलाईया कहने लगे। कालान्तर में उनके वंशजों की यही अटक हो गई। वे बलाही/बलाई कहलाने लगे।
दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि ने जब राजा धनपाल को प्रतिबोध देकर रतनपुरा गोत्र की स्थापना की थी, उस समय बडी संख्या में अन्य क्षत्रियों ने भी जैन धर्म स्वीकार किया था। उस समय गुरुदेव ने अलग अलग 24 गोत्रें की स्थापना की।
1- हाडा 2- देवडा 3- सोनगरा 4- मण्डलीचा 5- कुंदणेचा 6- बेडा 7- बालोत 8- चीपा 9- कोच 10- खींची 11- विहल 12- सेमटा 13- मेलवाल 14- वालीया 15- माल्हण 16- पावेचा 17- कांवलेचा 18- रापडिया 19- दुदणेचा 20 नाहरा 21- ईबरा 22- राकसिया 23- सांचोरा 24- बांघेटा

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