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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

KHINVASARA GOTRA HISTORY खींवसरा/खमेसरा/खीमसरा गोत्र का इतिहास


खींवसरा/खमेसरा/खीमसरा गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज

मरुधर देश के चौहान राजपूतों से इस गोत्र का उद्भव हुआ है। राजपूत खीमजी ने गांव का नाम अपने नाम से से खींवसर करके अपना राज्य चला रहे थे। भाटी राजपूतों के साथ इनकी परम्परागत शत्रुता थी। मौका देख कर एक बार भाटी राजपूतों ने इनके गाय, बैल आदि धन प्रचुर मात्र में चुराकर पलायन कर गये।
खीमजी अन्य राजपूतों को साथ लेकर पीछे दौडे। रास्ते में भिडंत हुई। भाटी राजपूत भी बडी संख्या में थे। इस कारण खीमजी का दल कमजोर पड गया।
खीमजी चिंता में पड गये। सोचा कि और सैन्य बल एकत्र कर इन्हें युद्ध में परास्त कर लूटा हुआ अपना धन पुनः प्राप्त करेंगे। रास्ते में अपनी शिष्य संपदा के साथ विहार करते हुए आचार्य भगवंत श्री जिनेश्वरसूरि मिले। उनका तेज देख कर वंदन नमस्कार किया। अपनी चिंता से अवगत किया। सारी घटना सुनाई।
गुरुदेव! कृपा करो। गुरुदेव ने कहा- तुम हमेशा के लिये शिकार, मद्य, मांस और रात्रि भोजन का त्याग करो।
खीमजी आदि सभी ने इन चारों नियमों को स्वीकार किया।

गुरुदेव ने अभिमंत्रित वासचूर्ण दिया। वे सज्ज होकर भाटी राजपूतों के पीछे गये। गुरुदेव की साधना के दिव्य प्रभाव से खीमजी आदि उस समय चमत्कृत होकर अचंभित हो गये जब देखा कि भाटी राजपूत सामने से चले आ रहे हैं। उन्होंने नम्रता के साथ चुराया सारा धन अर्पण करके क्षमायाचना की।
यह चमत्कार गुरुदेव की मंत्र सिद्धि का था जो उनका मन परिवर्तित हो गया था। खीमजी और साथी राजपूतों ने गुरुदेव की शरण स्वीकार करते हुए जिन धर्म को अपना लिया।
इतिहास कहता है कि चार पीढि़यों तक उनके पुत्र पुत्री आदि के सांसारिक संबंध राजपूतों में ही होते रहे। तब अन्य राजपूत इनका उपहास करते। क्योंकि इन्होंने हिंसा का त्याग कर दिया था। खानपान शुद्धता से परिपूर्ण था।
आचार्य जिनेश्वरसूरि की परम्परा के पांचवें आचार्य प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि विहार करते हुए एक बार खींवसर पधारे।
खीमजी की पांचवीं पीढी के भीमजी चौहान गुरुदेव के दर्शनार्थ गये। अपनी पीड़ा व्यक्त की। तब दादा गुरुदेव ने इन्हें ओसवाल जाति में शामिल किया। खींवसर के होने के कारण खींवसरा कहलाये। यही गोत्र कहीं कहीं खमेसरा, खीमसरा भी कहा जाता है। पर गोत्र एक ही है। आचार्य जिनवल्लभसूरि ने वि. सं. 1163 में चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति अपरनाम अष्ट सप्ततिका की रचना की थी। उसमें खींवसर निवासी क्षेमसरीय मिषग्वर, सर्वदेव और उनके तीन पुत्र रसल, धंधक एवं वीरक आदि श्रेष्ठियों के नाम उल्लिखित हैं। जो आचार्यश्री के परम भक्त अनुयायी थे। विधिपथ अर्थात् खरतरगच्छ के अनुयायी होने का उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है। खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनकीर्त्तिसूरि खींवसरा गोत्र के थे जिनका जन्म वि. 1753 में फलोधी में हुआ था।

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