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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

JHABAK ZABAK GOTRA HISTORY झाबक/झांमड/झंबक गोत्र का इतिहास


झाबक/झांमड/झंबक गोत्र का इतिहास
आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज

वि. सं. 1475 की यह घटना है। खरतरगच्छ के महान् प्रतापी श्रुत भण्डार संस्थापक आचार्य भगवंत श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी म-सा- के सदुपदेश का परिणाम इस गोत्र की संरचना है।
राठौड वंश के राव चूडाजी चौदह पुत्र-पौत्रें में से एक झंबदे ने झाबुआ नगर बसाया। झंबदे के चार पुत्र थे। राजा झंबदे बूढ़ा हो गया था। उस समय दिल्ली के तत्कालीन बादशाह ने राजा झंबदे को फरमान भेजा कि तुम बहुत ही शक्तिशाली हो... शूरवीर हो...! उधर पास की घाटी में टांटिया नाम का भील हमारी आज्ञा नहीं मानता है और डाके डालता है। गुजरात की जनता को परेशान करता है, यात्रियों को लूटता है। उसे तथा उसके भाई को पकड कर दिल्ली लाना है। यह काम तुमको करना ही है। परिणाम स्वरूप तुम्हारा सादर बहुमान किया जायेगा।
राजा झंबदे विचार में पड गया। क्योंकि उसका शरीर वृद्ध अवस्था के कारण जर्जर हो रहा था। उसने अपने पुत्रें के साथ विचार विमर्श किया। सभी जानते थे कि टांटिया भील को पकडना कोई आसान काम नहीं है। बहुत चिंतन करने पर भी उनकी चिंता दूर नहीं हुई। बादशाह की आज्ञा की अवहेलना हो नहीं सकती थी और आज्ञा पालन में सामर्थ्य का अभाव नजर आ रहा था।
तभी दूसरे दिन राजा को समाचार मिले कि खरतरगच्छ के आचार्य भगवंत श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी म-सा- का का नगर में प्रवेश होने वाला है।

आचार्य भगवंत के आगमन में उसे अपनी चिंता के निवारण का उपाय नजर आने लगा। क्योंकि उसने खरतरगच्छ के आचार्य भगवंतों की सिद्धि और साधना के चमत्कारों के बारे में अपने पूर्वजों से बहुत सुना था।
वह जानता था कि राठोड वंश पर इस गच्छ के आचार्यों का बहुत उपकार रहा है। राठोडों की ख्यात में कवि ने लिखा है-
गुरु खरतर प्रोहित सिवड रोहडियो वारट्ट।
कुल को मंगत दे दडो, राठोडा कुल भट्ट।।
दूसरे ही दिन उसने पूज्य गच्छाधिपति जैसलमेर आदि अनेक ज्ञानभंडारों के संस्थापक आचार्य भगवंत श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी म-सा- आदि चतुर्विध संघ का झाबुआ नगर में बडे महोत्सव के साथ नगर प्रवेश करवाया। जब राजा स्वयं अगवानी कर रहा था, तो प्रजा बडी संख्या में उमड पडी। शासन की अनूठी प्रभावना हुई।
गुरु महाराज का उपदेश सुना। पूज्यश्री के प्रवचन से राजा प्रभावित हुआ। दोपहर के समय में राजा ने अपनी समस्या गुरु महाराज के सामने प्रस्तुत करते हुए इस आफत से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की।
गुरु महाराज ने जिन धर्म का स्वरूप समझाते हुए धर्म आचरण की प्रेरणा दी। सिद्ध किया हुआ विजय यंत्र दिया। राजा ने पूर्ण रूप से आश्वस्त होकर अपने बडे लडके के गले में वह विजय यंत्र धारण करा दिया। वह युद्ध भूमि में जा पहुँचा और बिना जनहानि के ही विजयी होकर लौटा। टांटिया भील को पकडने में कामयाब रहा।
बादशाह ने प्रसन्न होकर सारा भील प्रदेश ही राजा को पुरस्कार में अर्पण कर दिया।
इस प्रकार सारे प्रदेश पर झाबुआ का शासन स्थापित हो गया।
राजा अपने पुत्रें को लेकर गुरु महाराज के पास पहुँचा। गुरु महाराज की साधना की सौरभ का उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया था। राजा ने अपने पुत्रें सहित गुरु महाराज की शरण स्वीकार कर ली। गुरु महाराज ने श्रावकत्व का बोध दिया। राजा के तीन पुत्रें झाबक, झांमड और झंबक ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया। गुरु महाराज ने उनके नाम से ही तीन गोत्रें की स्थापना कर ली।

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