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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

CHOPRA BADER GANDHI SAND GOTRA HISTORY कूकड चौपडा, गणधर चौपडा, चींपड, गांधी, बडेर, सांड आदि गोत्रें का इतिहास


कूकड चौपडा, गणधर चौपडा, चींपड, गांधी, बडेर, सांड आदि गोत्रें का इतिहास

आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज


खरतरगच्छ के अधिपति आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि का शासन विद्यमान था। वे नवांगी टीकाकार आचार्य भगवंत श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म-सा- के पट्ट पर बिराजमान थे। वे विहार करते हुए वि. सं. 1156 में मंडोर नामक नगर में पधारे। वहॉं का राजा नाहड राव परिहार था।
उसके कोई पुत्र नहीं था। वह अपनी पीडा लेकर आचार्य जिनवल्लभसूरि के श्रीचरणों में पहुँचा। अपनी प्रार्थना विनम्र स्वरों में प्रस्तुत की।
आचार्य भगवंत ने कहा- तुम्हारे पुण्य में तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होने की स्थिति है। पर तुम्हें संकल्प लेना हो गा कि मैं एक संतान वीतराग परमात्मा के शासन को समर्पित करूँगा।
राजा के संकल्प लेने पर आचार्य भगवंत ने वासचूर्ण डाला। परिणाम स्वरूप उसके चार पुत्र हुए। राजा को अपना वचन याद था। पर रानी नहीं मानी। उसने राजा से कहा- यदि तुमने अपना एक पुत्र जिनशासन को सौंप दिया, तो मैं हमेशा हमेशा के लिये इस देह का त्याग कर दूंगी। स्त्रीहठ के आगे राजा को झुकना पडा।
 सबसे बडे पुत्र का नाम कुक्कडदेव था। एक दिन उसके भोजन में सांप की गरल गिर गई। उसे पता न चला और उसने वह भोजन कर लिया। सर्प का विष पूरे शरीर में व्याप्त हो गया।
राजा नाहरदेव ने बहुत इलाज करवाये। औषधि प्रयोग किया। कई ओझाओं से झाडफूंक भी करवाई गई। पर राजकुमार स्वस्थ नहीं हो पाया।

तब राजा के मंत्री कायस्थ गुणधर ने कहा- राजन्! आप अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कीजिये। आपने आचार्य जिनवल्लभसूरि को वचन दिया था। वे तो अब स्वर्गवासी हो गये। उनके पट्टधर शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि भी बडे चमत्कारी साधना संपन्न महापुरुष है। उनका विचरण भी इन दिनों मंडोर के आसपास ही है। आप वहॉं पधार कर अपनी गलती के लिये क्षमा मांगे। गुरुदेव बहुत उदार है। आपकी समस्या का समाधान भी वहीं से प्राप्त होगा।
राजा अपने पुत्र को लेकर गुरुदेव आचार्य जिनदत्तसूरि के पास पहुँचा। गुरुदेव ने दृष्टिपात किया। सारा रहस्य समझ में आ गया।
उन्होंने कहा- जाओ! कुकड गाय का नवनीत लेकर आओ। उस नवनीत में मिलाने के लिये मैं विशिष्ट विषापहार मंत्र से अभिमंत्रित वासचूर्ण देता हूँ, उसे मिश्रित करो और कुमार के पूरे शरीर में चोपड दो।
नवनीत चोपडने से राजकुमार धीरे धीरे होश में आया। कुछ ही समय पश्चात् वह सर्वथा निर्विष हो गया। गुरुदेव के इस प्रत्यक्ष चमत्कार व उनके उपकारों से प्रभावित होकर राजा नाहरदेव गुरुदेव का परम भक्त बन गया। गुरुदेव ने सम्यक्त्व का स्वरूप समझाकर जिन धर्म का परिचय दिया। राजा ने सपरिवार सम्यक्त्व/जैनत्व धारण किया। राजा के पुत्र का नाम कुकडदेव था तथा उसके शरीर पर नवनीत चुपडा गया था, इस कारण उनका गोत्र कूकड चोपडा कहलाया।
गुणधर या गणधर चोपडा- कायस्थ मंत्री गुणधर माथुर ने दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि की साधना, चमत्कार और उनके तप त्याग से प्रभावित हो नित्य उनके उपदेश श्रवण करने लगा। उसने भी वीतराग परमात्मा के धर्म को स्वीकार कर लिया। उसने ही राजकुमार के शरीर पर नवनीत चुपडा था। इसलिये उसके वंशज गुणधर चोपडा कहलाये।
इस प्रकार वि. 1169 में दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि ने कूकड, चोपडा व गणधर चोपडा आदि विभिन्न गोत्रें की स्थापना कर इन्हें ओसवालों में सम्मिलित किया। कालान्तर में इस गोत्र की कई शाखाऐं बनी।
गांधी- गुणधर चोपडा के वंशज जब गांधी का व्यवसाय करने लगे तो उसकी एक शाखा गांधी कहलाई।
मोदी- एक बार जब जोधपुर के महाराजा अजितसिंहजी विपत्ति में थे, तब उन्हें पहाडों में भटकना पडा था। उस समय गणधर चोपडा के वंशजों ने उनकी भोजन आदि की पूरी व्यवस्था कर महाराजा को सहायता पहुँचाई थी। परिणामस्वरूप बाद में महाराजा ने उन्हें वंश परम्परागत मोदी की उपाधि देकर सम्मानित किया था। तब से इनके वंशज मोदी कहलाने लगे।
चींपड- राजा के एक पुत्र का नाम चींपड था। अतः उसके वंशज चींपड कहलाये।
सांड- राजा के एक पुत्र का नाम सांडे था। उसके वंशज सांड कहलाये।
राजा नाहरदेव की पांचवीं पीढ़ी में दीपसी हए। उस समय में दादा श्री जिनकुशलसूरि के उपदेश से ओसवालों के साथ सामाजिक व्यवहार प्रारंभ हुआ।
कोठारी- नानूदे की पांचवीं पीढी में दीपसी/दीपचंदजी हुए। उनकी 11वीं पीढी में सोनपालजी हुए जिन्होंने शत्रुंजय का संघ निकाला एवं धर्म कार्यों में लाखों रूपये अर्पण किये। उनके पौत्र ठाकरसी हुए। राव चूंडाजी राठौर के यहॉं कोठार का कार्य करने से इनके वंशज कोठारी कहलाये।
हाकिम- ठाकुरसी के वंशज बाद में बीकानेर चले गये। वहॉं के राव बीकाजी ने इन्हें हाकिम पद दिया। हाकिम का काम करने से इनके वंशज हाकिम कहलाये।
यति श्रीपालचंद्रजी द्वारा लिखित जैन सम्प्रदाय शिक्षा के अनुसार वि. 1152 में आचार्य जिनवल्लभसूरि मंडोर पधारे। उस समय मंडोर के राजा पडिहार नानूदे का पुत्र धवलचंद कुष्ट रोग से दुखी था। राजा ने इस रोग की चर्चा गुरुदेव से की। गुरुदेव ने कुकडी गाय का घी मंगवाकर उसे अभिमंत्रित किया। कुष्ट रोगी के पूरे शरीर में वह मंत्रित घी चुपडवाने से राजकुमार धवलचंद स्वस्थ हो गया। राजा ने प्रभावित होकर गुरुदेव से जैन धर्म को स्वीकार किया। गुरुदेव ने ओसवाल जाति में सम्मिलित कर कूकड चोपडा गोत्र दिया। मंत्री गुणधर से गणधर चोपडा गोत्र चला।
इस प्रकार चोपडा गोत्र की कुल 12 शाखाऐं हुई। इनमें परस्पर भाईपा है।
1- कूकड 2- चोपडा 3- गणधर चोपडा 4-चींपड 5- सांड 6- मोदी 7- बूबकिया 8- धूपिया 9- बडेर 10- जोगिया 11- गांधी 12- कोठारी ।
चोपडा परिवार ने अनेक जिनमंदिरों का निर्माण करवाया। जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथ प्रभु का मंदिर जिसका निर्माण वि. सं. 1494 में शुरु करवाया और उसकी प्रतिष्ठा आचार्य प्रवर श्री जिनभद्रसूरि द्वारा वि. 1494 मिगसर वदि 3 को संपन्न हुई, का निर्माण चोपडा वंश के चारों भ्राता शाह शिवराज, महिराज, लोला और लाखन परिवार ने कराया। इसी मंदिर के भूगर्भ में जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार है, जो जिनशासन में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
जैसलमेर के ही अष्टापद मंदिर के निर्माण में संखलेचा परिवार के खेताजी तथा चोपडा परिवार के शाह पांचा का योगदान रहा। इस मंदिर की प्रतिष्ठा वि. 1536 फाल्गुन सुदि 3 को आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि द्वारा संपन्न हुई थी।
लोहावट में चन्द्रप्रभु मंदिर का निर्माण भी चोपडा परिवार द्वारा करवाया हुआ है।

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