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Shri JINManiprabhSURIji ms. खरतरगच्छाधिपतिश्री जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है।

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पूज्य गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्य श्री जिनमनोज्ञसूरीजी महाराज आदि ठाणा जहाज मंदिर मांडवला में विराज रहे है। आराधना साधना एवं स्वाध्याय सुंदर रूप से गतिमान है। दोपहर में तत्त्वार्थसूत्र की वाचना चल रही है। जिसका फेसबुक पर लाइव प्रसारण एवं यूट्यूब (जहाज मंदिर चेनल) पे वीडियो दी जा रही है । प्रेषक मुकेश प्रजापत फोन- 9825105823

SAMDARIYA SAMADADIYA GOTRA HISTORY समदरिया/समदडिया गोत्र का इतिहास


समदरिया/समदडिया गोत्र का इतिहास

आलेखकः- गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी महाराज


पारकर देश स्थित पद्मावती नगर के पास के एक गांव में सोढा राजपूत परिवार रहता था। उसका नाम था समंदसी! उसके आठ पुत्र थे- देवसी, रायसी, खेतसी, धन्नो, तेजमाल, हरि, भोमो तथा करण!
पूरा परिवार अत्यन्त गरीबी में जीता था। कृषिकर्म करता था। पर आय की अपेक्षा व्यय अधिक था। वहीं निवास करने वाले साहूकार धन्ना पोरवाल से वह कर्ज लेकर जैसे तैसे अपना काम चलाता था। खेती निष्पन्न होने पर कर्ज चुका दिया करता था। थोडा बहुत जो बचता था, उसी से अपनी तथा अपने परिवार की आजीविका चलाता था।
एक बार गांव में विहार करते हुए पधारे आचार्य भगवंत श्री जिनवल्लभसूरि के दर्शन हुए। आचार्य भगवंत की प्रभावशाली मुद्रा देख कर प्रभावित हुआ। अपनी रामकहानी सुनाते हुए निवेदन किया- गुरुदेव! पूरा परिवार दुख में जी रहा है। कर्ज में डूबा हुआ है। गुरुदेव! आप कुछ उपाय फरमावो जिससे हमारी समस्या का समाधान हो।
गुरुदेव ने कहा- जीवन में दुख सुख अपने कर्मों के कारण ही प्राप्त होता है। धर्म कार्य करने से सुख व पाप कर्म करने से दुख मिलता है। यदि तुझे सुख चाहिये तो धर्म की आराधना कर! अहिंसा का पालन कर! समता की साधना कर!
गुरु महाराज ने उसे धर्म का रहस्य समझाया। राग द्वेष से रहित होकर समभाव में रहते हुए प्रतिदिन सामायिक करने की प्रेरणा दी।

समंदसी को अहिंसा का उपदेश रूचिकर लगा। उसने हिंसा का सर्वथा त्याग कर दिया। गुरु महाराज से विधि जाकर दोनों समय सामायिक करने लगा। सामायिक में उसे परम आनंद की अनुभूति होने लगी।
सेठ धन्ना पोरवाल ने जब उसकी सामायिक आदि की क्रियाओं को जाना तो बहुत आनन्दित हुआ। समंदसी को अपना साधर्मिक जान कर वह सहयोग करने लगा। उसके आठों ही पुत्रें को अपनी ओर से गुरुकुल भेजा। उनकी शिक्षा का पूरा प्रबन्ध सेठ करने लगा।
यह देख कर समंदसी विचार करने लगा कि यही सेठ कर्ज वापस देने में यदि थोडी-सी भी देर हो जाती तो नाराज हो जाता और आज वह स्वयं चला कर मेरा और मेरे परिवार का पूर्ण सहयोग कर रहा है। इसके पीछे क्या राज है?
उसने चिंतन किया तो पाया कि धर्म ही इसमें मुख्य कारण है। धर्म की आराधना का महत्व कितना अधिक है कि वह मेरा सहज सहयोगी बन गया। उसके हृदय में जिन धर्म के प्रति अहोभाव बढता गया।
तभी कुछ ही समय बाद वि. सं. 1175 में आचार्य जिनवल्लभसूरि के पट्टधर प्रथम दादा गुरुदेव आचार्य श्री जिनदत्तसूरि विहार करते हुए पद्मावती नगर में पधारे। समंदसी ने अपना गुरु ज्ञात कर सपरिवार वंदना की।
विनंती की कि हे गुरुदेव! धर्म के प्रताप से मेरे जीवन का सारा दुख नष्ट हुआ है। इस भव में सुखी हुआ हूँ। पर भर में भी मैं सुखी बनूं, वैसा उपाय बतावें।
गुरुदेव ने उसे सपरिवार जिनधर्म स्वीकार करने को कहा। परमात्मा का शुद्ध धर्म जान कर उसे धारण करो। सच्चे श्रावक बनो।
समंदसी ने गुरुदेवश्री से वासचूर्ण लेकर श्रावकत्व स्वीकार किया। चूंकि वह समुद्र के मार्ग से व्यापार करता था, इस कारण गुरुदेव ने उन्हें समदरिया/समदडिया गोत्र प्रदान किया।

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